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अनेकान्त
तिर
पादेश (विशेष) की अपेक्षा क्रम से गत्यादि १४ मार्ग
८ अल्पबहुत्वानुगम णामों का पाश्रय लेकर उनमें यथासम्भव गुणस्थानों के प्रादेसेण गदियाणुवादेण रिणरयगदीए रइएसु सव्वअनुसार जीवों के क्षेत्र की प्ररूपणा की है।
त्योवा सासणसम्माइट्टी ॥२७॥ सम्मामिच्छादिट्ठी संखेज्ज४ स्पर्शनानुगम
गुणा ॥२८॥ अमंजदसम्मादिट्टी प्रसखेज्जगुणा ॥२६॥ सम्मामिच्छाइटि-प्रसजवसम्माइट्ठीहि केवडियं खेत्तं मिच्छादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥३०॥ ष० खं० पु०५ पृ० पोसिदं? लोगस्स प्रसखेज्जदिमागो ॥५॥ पट्ठ चोदम २६१-६२ भागा वा देसूणा ॥६॥ ष. ख पृ. ४ पृ. १६६
विशेषेण गत्यनुवादेन नरकगती सर्वासु पृथिवीष नारसम्यग्मिध्यादृष्टयसंयतसम्यग्दृष्टिभिर्लोकस्यासंख्येय. केषु सर्वतः स्तोका सासादनसम्यग्दृष्टयः । सम्यग्थ्यिादृष्टयः भागः प्रष्टौ वा चतुर्दशभागा देशोनाः । स. सि. पृ. ४६. संख्येयगुणा: । असंयनसम्यग्दष्टयोऽसंख्येयगुणा । मिथ्या५ कालानुगम
दृष्टयो ऽसंख्येयगुणाः । स० सि० पृ० ८८ सासणसम्माइट्ठी केवचिर कालादो हति? णाणा- यहां मत्-सख्या ग्रादि उन आठ अनुयोगद्वारों के कुछ जीवं पडुच्च जहण्णण एगसमग्रो ॥५॥ उक्कस्सेण पलि. थोड़ेसे उदाहण दिये गये हैं। वैसे इम सूत्र (सत्-सख्यादोवमस्म प्रमंखेज्जदिभागो ॥६॥ एगजीव पडुच्च जहण्णण क्षेत्र ॥1) की सर्वार्थ सिद्धि में की गई समस्त व्याख्या एगसमपो ।।७।। उक्कस्सेण छ प्रावलियानो ॥८॥ ही प्रायः षट्खण्डागम के सूत्रों के अनुवादरूप है ।
ष.ख.पु.४पृ. ३३०-४२. इसी प्रकार त० सू० अध्याय २ के 'मम्यक्त्व चारित्रे' सामादनमम्यग्दृष्टेन नाजीवापेक्षया जघन्येनैक: मूत्र का व्याख्यान भी प्राय: षट्खण्डागम के सूत्रों का ममयः । उत्कर्षेण पल्योपमासंख्येयभाग. । एकजीवं प्रति अनुवाद है। जघन्येनक: समयः । उत्कर्षेण षडावलिकाः । स.सि.
तस्वार्थवातिक 'मन्तरानुगम
श्रीमद्-भट्टालंकदेव विरचित तत्त्वार्थवार्तिक मे सर्वार्थतिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु मिच्छादिट्ठीणमतरं केव
सिद्धि के अधिकाश वाक्यों को प्रायः सर्वत्र वार्तिकों के रूप चिरं कालादो होदि? णाणाजीव पडुच्च णत्थि अन्तर,
मे आत्मसात् किया गया है। पा० पूज्यपाद के समान प्रा० णिरंतर ॥३५॥ एगजीव पडुच्च जहण्णण प्रतोमुहुत्त ।॥३॥
प्रकलकदेव के सामने भी षट्खण्डागम रहा है व उन्होने उक्कस्सेण तिण्णि पलिदोवमाणि देसूणाणि ॥३७॥ मासण
उमका पर्याप्त उपयोग भी प्रस्तुत ग्रंथ में किया है। उदासम्माइटिप्पडि जाव सजदासजदा ति मोघं ॥३॥
हरण के रूप में त० सू० के द्वितीय अध्याय के 'सम्यक्त्व. १० ख० पु. ५१०३१-३३
चारित्र' मूत्र की व्याख्या में जो प्रथमोपशम सम्यक्त्व की तियंग्गतो तिरचा मिथ्यादृष्टेनानाजीवापेक्षया नास्त्य- उत्सात्त का विधान ह वह षट्खण्डागम के जीवस्थान
मनोमामाजवीण खण्ड की सम्यक्त्वोत्पत्ति नामक पाठवीं चूलिका के सूत्रों पल्योपमानि देशोनानि । सासादनसम्यग्दृष्ट्यादीना चता का अनुवाद जैसा है। यथासामान्योक्तमन्तरम् । स०सि० पृ०६८
व० सं० (पु०६ पृ० २०३ मादि)-एवदिकालदिदि
एहि कम्मेहि सम्मत्तं ग लहदि ॥१॥ एदेसि चेव कम्माणं भाशनगम
हावे अंतोकोडाकोडिदिदि बंधदि तावे पढमसम्मत्तं लभदि अमजदसम्माइट्टि ति को भावो? उवसमिमो वा
॥३॥ सो पुरण पंचिदियो सण्णी मिच्छाइट्ठी पज्जत्तमो खइनोवा खग्रोवसमिनो वा भावो ॥५॥ १० ख० पु०५ पृ० १९६
१. इसकी समानता मागे तत्त्वार्थवातिक के उल्लेख में असंयतसम्यग्दृष्टिरिति प्रौपशमिको वा क्षायिको वा देखिए, कारण कि सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवातिक भायोपशमिको वा भावः । स०सि० पृ.८४-८५
का वह सन्दर्भ प्रायः शब्दशः समान है।