Book Title: Anekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 353
________________ सर्वार्थसिद्धि भोर तत्त्वार्थवार्तिक पर षट्खएडागम का प्रभाव बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री जैन सम्प्रदाय में तस्वार्थसूत्र एक सुप्रसिद्ध ग्रन्थ है। सिद्धि वृत्ति में जो सत् व संख्या प्रादि का विस्तृत विवेचन वह प्रमाण मे प्रल्प होने पर भी प्रर्थतः महान है। उसका पाया जाता है उसका प्राधार प्रकृत षट्खण्डागम ही रहा महत्त्व इसीसे जाना जाता है कि उमके ऊपर दिगम्बर और है। इसके प्रथम खण्डभूत जीवस्थान मे उपयुक्त सत-संख्या ज्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायो मे अनेक विस्तृत टीकायें रची प्रादि की प्ररूपणा पृथक्-पृथक् सत्प्ररूपणा व द्रव्यप्रमाणागई हैं। उन टीकामों में प्रा० पूज्यपाद विरचित सर्वार्थ- नुगम प्रादि पाठ अनुयोगद्वारों के द्वारा विस्तार से की सिद्धि पौर प्रकलंकदेव विरचित तत्त्वार्थवातिक प्रतिशय गई है। प्रा. पूज्यपाद ने इन्हीं अनुयोगद्वारों से लेकर प्रसिद्ध है। तस्वार्थ सूत्र चुकि मोक्षमार्ग में प्रवृत कराने प्रपनी सर्वार्थसिद्धि वृत्ति मे उक्त सत्-मंख्या प्रादि का के उद्देश से रचा गया है, प्रतएव उसमें मुक्ति में प्रयो- निरूपण किया है । यह वर्णन प्राय षट्खण्डागम के सूत्रों जनीभूत जीवादि सात तत्त्व ही १० अध्यायों मे चचित का छायानुवाद मात्र है । यथाहुए हैं। मूल सूत्रग्रन्थ के अनुमार उसपर लिखी गई उप १ सत्प्ररूपणा युक्त दोनो टीकामों में भी मुख्यतया उन्हीं तत्त्वों का षट्खण्डागम पु.१- सतपरूवणदाए दुविहो णिद्दे सो विस्तार के साथ विचार किया गया है। पर यथाप्रसग मोघेण प्रादेसेण य ।। प्रोघेण प्रत्थि मिच्छाइट्ठी ॥६॥ वहा अन्य विषयो की भी चर्चा की गई है। इन विषयों के सासणसम्माइठी ॥१०॥ इत्यादि । विवरण मे वहां यथास्थान कुछ विषयों के स्पष्टीकरण के सर्वार्थ सिद्धि-तत्र सत्प्ररूपणा द्विविधा सामान्येन लिये भगवन्त पुष्पदन्त व भूतबलि विरचित षट्खण्डागम विशेषेण२ च । सामान्येन च अस्ति मिथ्यादृष्टि: सासादनको माधार बनाया गया है। सम्यग्दृष्टिरित्येवमादि । पृ०३१ उक्त षट्खण्डागम महाकर्म-प्रकृति प्राभूत का उपसंहार षटखण्डागम में जहां प्रत्येक गुणस्थान का उल्लेख है, यह सुप्रसिद्ध है। तदनुसार उममें कर्म और उससे पृथक-पृथक् सूत्र के द्वारा (९ मे २३) किया गया है वहा सम्बद्ध जीवों की ही प्ररूपणा की गई है। यद्यपि उसके राणुगमो भावाणुगमो अप्पाबहुगाणुगमो चेदि । ऊपर उपलब्ध प्रा. वीरसेन विरचित विशालकाय धवला ष. ख पु. १ पृ. ५३.५५ टीका में यथाप्रसग अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों का व्याख्यान ___ यहां यह विशेष ध्यान देने योग्य है कि गुणस्थानो किया गया है, पर मूल ग्रन्थ में कर्म का ही प्रमुखता से के लिए षट्खण्डागम मे जिस प्रकार 'जीवसमास' वर्णन है। शब्द व्यवहुत हुआ है (सूत्र ५) उसी प्रकार सर्वार्थसिद्धि सर्वार्थ सिद्धि मे भी उक्त गुणस्थानों के लिए 'जीवतत्त्वार्थसूत्र में जो 'सत्-संख्या-क्षेत्र-स्पर्शन-कालान्तर समास' शब्द का ही उपयोग किया गया है। जैसेभावाल्पबहुत्वैश्च'१ मूत्र (१-८) उपलब्ध है उसकी सर्वार्थ एतेषामेव जीवसमासानां निरूपणार्थ चतुर्दश १. एदेसि चेव चोहसण्ह जीवसमासाण परवणदाए मार्गणास्थानानि ज्ञेयानि। स. सि. (भा. ज्ञानपीठ) तत्थ इमाणि पट्ट प्रणियोगद्दाराणि णादव्याणि भवंति ॥५॥ तं जहा ॥६॥ सतपरूषणा दग्वपमाणा. २. पोधेन सामान्येनाभेदेन प्ररूपणमेकः, अपरः मादेशेन णुगमो खेत्ताणुगमो फोसणाणुगमो कालाणुगमो प्रत- भेदेन विशेषेण प्ररूपणमिति । धवला पु. १ पृ. १६०

Loading...

Page Navigation
1 ... 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426