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अनेकान्त
९. रावण विजय के पश्चात् अब भगवती सीता के ने कभी मनसे भी रावण को नहीं चाहा३।' प्रथम दर्शन होते हैं तब लक्ष्मण दौड़ कर उनके चरण १२. सती का धैर्य रावण के बन्धन में ही दिखाई स्पर्श करते हैं । बिनय से शिर नवाकर सम्मुख खड़े हो दिया हो, ऐसी बात नहीं है। यह धैर्य उनकी अक्षुण्ण जाते हैं। सीता उस इन्द्र समान रूपगुण सम्पन्न पुत्रस्नेह सम्पत्ति है। सेनापति कृतान्तवक्त्र जब सीता को घोर के अधिकारी देवर को देखती है और प्रालिंगन करती वन में छोड़ देता है तब भी वह श्रीराम पर किसी प्रकार है। उस समय उनकी प्रांखो मे मांसू छलछला उठते हैं१ । का प्रारोप नहीं लगाती। क्योकि 'स्वामीच्छा प्रतिकूलत्व १०. सीता ने रावण के बन्धनगृह में ११ दिन अन्न
कुलजानां कुतो भवेत्'-कुलीन स्त्रियों में पति के विरुद्ध जल ग्रहण नही किया । हनुमान् द्वारा पति के कुशल समा
भावना का उदय होता ही नहीं। 'एक हि धर्म, एक बत चार जानने पर ही पारणा की। पयपुराण मे वर्णन है
नेमा, कायवचन मन पतिपद प्रेमा' यह उनका स्वभाव कि उन्होंने दिवा भोजन लिया, रात्रि भोजन प्रशंसनीय
होता है। उस समय सीता को धर्म रक्षा का ही स्मरण नहीं माना।
रहा । कृतान्तवक्त्र के साथ सन्देश भेजते हुए उन्होंने यही ११. जिस प्रकार श्रीराम का जीवन अनेक कष्ट
कहा-हे महापुरुष! पिता के समान प्रजा का पालन परम्परामो की श्रृंखला है वैसे ही सीता को भी अनेक
करना । मरे परित्याग का शोक न करना । संसार असार संकटो की अग्नि से निकलना पड़ा है। अयोध्या की राज
है, सम्यग्दर्शन ही सार है। मत. किसी प्रभव्य के दुर्वाद वधू होकर वह वन मे गई, वहां रावण से हरी गई पति
से मेरे समान उसे न छोड़ देना। मेरे ज्ञात-मज्ञात दोषो से वियुक्त होकर ऋर-घोर राक्षसियो के बीच रहना पड़ा।
को क्षमा करना४।' धोर वन मे असहाय खड़ी होकर रावण-वध के पश्चात् श्रीराम ने उन्हें अग्नि-परीक्षा के
ऐसा शान्त, स्थिर वचन कोई देवी सदृश नारी हो कह लिए कहा । पग्नि-परीक्षा के पश्चात् भी लोक-निन्दा की
सकती है। संसार के राग कारणों के वशीभूत स्त्रियों के पात्र बनी। पुनः सगर्भा का श्रीराम ने परित्याग कर।
मुख से निकलनेवाली शब्दावली तो आजकल प्राय. न्यायादिया और वन मे अनेक कष्ट उठाने पड़े । अत्यन्त गरिमा
लयों में उपस्थित 'तलाक' चाहनेवालों की प्रार्थनामो में मयी, मगलमयी महाकुलीन देवी को कितना कष्ट सहन पढ़ी जा सकती है। परन्तु सीता सती ही नहीं, महासती करना पडा। सीता के इस अपराजित धैर्य की विरुदावली हैं। पति के उत्कर्ष में सहयोग करना उनका धर्म है । वर्णन करते हुए रविषेणाचार्य लिखते हैं-'अहो! पति- वह सम्पत्ति और विपत्ति में अविचल एकरूप है। इसी परायणा सीता का धर्य अनुपम है। इसका गाम्भीर्य लिए माज भी उनका नाम लेकर स्त्रिया पाशीर्वाद प्रदान क्षोभरहित है, महो! इसके शीलवत की मनोजता श्लाघ- करती हैं। सती का धैय हिमालय होता है, वह अल्पताप नीय है। व्रत-पालन में निष्कम्पता प्रशंसनीय है। इसको से पिघल कर प्रवाह के साथ मिलना नहीं जानता। मानसिक-मात्मिक बल उच्च कोटि का है। इस सुचरित्रा ३. अहो! निरुपमं धैर्य सीताया साधुचेतसः ।
महो! गाम्भीर्यमक्षोभ महो! शीलेमनोज्ञता १. 'सम्भ्रान्तो लक्ष्मणस्तावद् वैदेह्याश्चरणद्वयम् ।
महो! नु व्रतनष्कम्प्यमहो! सत्वं समुन्नतम् अभिवाद्य पुरस्तस्थी विनयानतविग्रहः ॥
मनसापि ययानेष्टो रावणः शुद्धवृत्तया ।' पुरन्दरसमच्छायं दृष्ट्वा चक्रधर तदा ।
पपपुराण ७६।५६-५७ प्रसान्वितेक्षणा साध्वी जानकी परिषस्वजे॥'
४. 'सदा रक्ष प्रजां सम्यक् पितेव न्यायवत्सलः ।' -पद्मपुराण ७९५८-५९
'भव्यास्तद् दर्शनं सम्यगाराधयितुमिहंसि ।। २. 'रविरश्मि कृतोद्योतं सुपवित्रं मनोहरम् ।
'न कथंचित् त्वया त्याज्यं नितान्तं तद्धि दुर्लभम ।' पुण्यवर्धनमारोग्यं दिवामुक्तं प्रशस्यते ॥'
'मयाऽविनयमीशं! त्वं समस्तं क्षन्तुमर्हसि ॥ -पपुराण ५३३१४१
-पपुराण ९७।१८, २०, २२, २३