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अनेकान्त
है। कलियुग में यह कल्याण का निवास स्थान है-यह महर्षि ने कैकेयी के लिए 'यशस्विनी' शब्द का प्रयोग भक्तकवि सन्त तुलसीदास की सूक्ति है। संस्कृत, प्राकृत, किया है । वास्तव में श्रीरामचरित की समीक्षा की जाए मपश, प्रादेशिक और प्राचीन-पर्वाचीन हिन्दी भाषा तो उसका लोकोत्तर वैभव उनकी वन यात्रा में निहित है। में व्यापक रूपेण श्रीराम कथा को प्रश्रय प्राप्त उनके वन गमन से भरत का भ्रात प्रेम, लक्ष्मण की भक्ति हमा है। तुलसीदासजी के समक्ष 'रामचरित मानस' सीता की एकनिष्ठ पतिव्रता सिडि, दुर्जय रावण का पतन, लिखते समय लोक में प्रचलित विविध राम-काव्य थे, श्रीराम का अद्भुत पराक्रम-सभी प्रकरण यशस्वी करने जिन्हें लक्ष्य कर उन्होंने 'नानापुराण निगमागम सम्मत यद् के कारण बनते हैं । इस कष्ट परम्परा ने यशः पुष्पों की रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि'- तथा 'जे प्राकृत माला श्रीराम के कण्ठ मे पहनाई, यह चिरसुखद परिणाम कवि परम सयाने । भाषां जिन्ह हरिचरित बखाने । भये कैकेयी प्रदत्त है। जे महहिं जे होहिहहिं प्रागे। प्रनऊ सबहिं कपट सब ३. श्रीराम का जीवन चरित कठिनाइयों, संघर्षों त्यागे।' इस प्रकार की महत्त्वपूर्ण तथा विनय गभित और श्रीरता-वीरता की अनुपम गाथा है । वह लोकविश्रुत सूक्तियां लिखी हैं । माधुनिक कवियो में मैथिलीशरणजी इक्ष्वाकु कुल के मुकुट मरिण हैं। अपने चरित से उन्होंने गुप्त ने 'साकेत' महाकाव्य में लिखा है
सम्पूर्ण पूर्वापर पीढ़ियों को कीतिकलश प्रदान किये हैं । 'राम! तुम्हारा चरित स्वय ही काम्य है, परन्तु इन सब के लिए उन्हें जीवन पर्यन्त शर शय्या पर कोई कवि बन जाय, सहज संभाव्य है।'
बिछोना लगाना पड़ा। जिस समय उनके राज्याभिषेक की -साकेत, प्र. सगं.
योजना चल रही थी, कोने में खड़ा हुमा अदृष्ट (भाग्य)
मुसकुरा रहा था । अतः प्रात काल ही राज्यासन के स्थान वस्तुतः गुप्तजी की उक्ति प्रतिशयोक्ति नहीं है। कुछ
तनहा है। कुछ पर उन्हें घोर वन स्थान देखना पडा२ । मुकुट, छत्र, ऐसे लोग होते हैं जिनके नामकारण के लिए यथोचित
यथाचित चामर बल्कल और जटा मे बदल गये। पतिपरायणा शब्द नहीं मिलते और कुछ ऐसे होते हैं जिनके 'सहस्रनाम' मीता के साथ चलने काठ किया। श्रीराम के निषेध लिखने पर भी प्रतिरिक्त नाम लोक जिह्वानों पर निर्मित किये जाने पर जदोंने सविनय अवज्ञा प्रान्दोलन छेड होते रहते हैं। एक में नाम समाते नहीं, एक नाम में दिया। उन्होंने कहा कि पति का अनुगमन करना नारी का समाता नहीं। महापुरुषों के चरित उन्हें एक से अधिक धर्म और मैं अपने धर्म का त्याग नहीं कर सकती। नाम प्रदान करते रहते हैं। अनन्मगुण विभूषित को ही क्योकि समुद्र में, अरण्य में, शत्रु समूह मे, विषम स्थितियो 'बुद्धवीर जिन हरिहर ब्रह्मा या उसको स्वाधीन कहो। सोमबार प्रत. यदि पाप मझे स्वेच्छा से भक्ति भाव से प्रेरित हो यह चित्त उसी मे लीन रहो।'
रहा। नहीं ले चलेंगे तो मै आपके प्रागे मागे कुश कण्टकों को
र इस प्रकार की नानाभिधान रत्नावली से अभिहित किया - जाता है। नाम उनकी गरिमा के एक देश को प्रशस्ति तो
पनि १. 'रामो मातरमासाद्य विवर्णा शोककशिताम् ।
र दे सकते हैं किन्तु सीमा नहीं हो सकते । वे उनके विशेषण
जग्राह प्रणतः पादो मनो मातुः प्रहर्षयन् ।। तो बन सकते हैं, विरामचिह्न नहीं।
अभिवाद्य सुमित्रां च कैकेयीं च यशस्विनीम्।
स मातृश्चतत. सर्वाः पुरोहित मुपागमत् ॥' २. श्रीरामचन्द्र अयोध्या नरेश 'दशरथ के ज्येष्ठ
-वा० रामा० युत० ७॥३३-३४ । पुत्र हैं । भरत, लक्ष्मण पौर शत्रुधन उनके लघु भ्राता २. 'प्रातभवामि वसुधाधिपचक्रवर्ती, हैं। कौसल्या को श्रीराम की माता होने का गौरव
सोऽहं ब्रजामि विपिने जटिलस्तपस्त्री।'प्राप्त है तथापि श्रीराम की विनय भक्ति अपनी विमा- ३. 'हे ममुहे विसमे प्ररणे जसे थले सतुसमूहमध्ये । तामों के साथ भी अपूर्व है। वनवास से लोटने पर उन्होंने कहंचिजीवा पडिया यजंति लंघति धम्मेतिह याव पाव ।। जब कैकेयी की चरण वन्दना की, उस समय वाल्मीकि
-सीमाचरियं