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अनेकान्त
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गया और परिग्रह तथा कषाय को त्याग कर समाधि मरण धारण कर लिया। अठारह दिन तक निराहार रह कर विषय कथायों पर विजय प्राप्त करके, शरीर से भी ममत्व छोड़कर समाधि मरण पूर्वक शरीर छोड़ा घर द्वितीय स्वर्ग में दिवाकर नाम का देव हुधा । जो कभी वारकी थारकों के असीम दुखों का भाजन था वही स्वर्ग में देव या स्वर्गीय सुखों का स्वामी या प और धर्म में, पाप और पुण्य में यही तो प्राकृतिक अन्तर है। बस यहीं से अभ्युत्थान प्रारम्भ हुआ और कानन का केवारी नरकेवारी-वर्ती भरत बना !
ऋषभदेव की वज्रनाभि पर्याय में भरत का जीव उनका (वजूनाभि का) सगा भाई (सुबाहु ) था ! उस समय इनके पिता राजा वज्रसेन चक्रवर्ती थे, तीर्थङ्कर थे ! ऐसा लगता है कि ऋषभ देव को सतत विरागी प्रवृत्ति के कारण उन्हें अपने पिता से तीसरे भव मे तीर्थङ्कर और प्रतिद्ध राजा की परिग्रही अभिलाषा के कारण भारत को अपने पिता से चक्रवर्तित्व पद पाने का शुभा वसा साकार हुआ था ! वजुनाभि तथा उनके भाई
सुबाहु आगामी भव में भी सर्वार्थसिद्धिके ग्रहमिन्द्र के रूप में साथ-साथ रहे ! और आगे चल कर एक पिता बना तो दूसरा उसी का पुत्र ! वज्रनाभि सर्वार्थसिद्धि से चयकर नाभिराय कुलकर के घर ऋषभदेव हुए और उनका भाई सुबाहु सर्वार्थसिद्धि से चयकर उन्हीं ऋषभदेव के पुत्र चक्रवर्ती भरत हुए ।
वैदिक अनुश्रुतियों के अनुसार भरत की दो उत्तर पर्यायों का भी वर्णन मिलता है ।
(१) अपने पुत्र को राज्य देकर जब वह पुलहाश्रम मे रहते थे तब एक मातृ वियोगी मृग शिशु को उन्होंने पुत्रवत् पाला और उससे राग हो जाने के कारण उन्हें हरिण मृग की पर्याय लेनी पड़ी।
( २ ) इस पर्याय से शरीर छोड़ने के बाद उन्हें ब्राह्मण के घर जन्म लेना पड़ा तब उन्हें मुक्ति (मोक्ष) की प्राप्ति हुई ।
उक्त भवावलि के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि पिता पुत्रके उन पूर्वभवों की घटनाओं में उनके चरण किस प्रकार उन्नति की ओर अग्रसर होते रहे हैं।
एक उपदेशी पद
कविवर यानतराम भाई जानो पुद्गल न्यारा रे ॥ क्षोर नीर जड़ चेतन जानो, बालु पखान जीव करम को एक जानतो, भाइयो श्री
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वितारा रे ।
भेद ज्ञान न राम रूप न भाप रहे
विचारा रे । गणधारा है। इस संसार दु:ख सागर में, तोहि भ्रमावन हारा है। ग्यारह अग पढ़े सब पूरब, कहा भयो सुवटा की नाई, भवि उपदेश मुकति पहुँचाये, ज्यों मलाह पर पार उतारं प्राप वार का जिनके वचन ज्ञान परगासं, हिरदं मोह ज्यों मसालची घौर दिखावे, आप जात अंधियारा रे । बात सुने पातक मन नासं, अपना मल न भारा रे । बांदी पर पद मलमल धोवं, अपनी सुध न संभारा रे । ताको कहा इलाज कीजिये, बूढ़ा अम्बुधि धारा । जाप जप्यो बहु ताप तप्यो, पर कारज एक न सारा रे तेरे घट प्रन्तर विम्मूरति चेतन पद उजियारा रे । साहिल तासों नि भावं, 'खान' सहि भव पारा रे ।
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निहारा है। संसारा रे ।
वारा रे ।
प्रपारा रे ।