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जैन और वैविक अनभूतियों में ऋषभ तवा भरत की भवावलि
इसके बाद महाबल के भव से श्रीधर देव पर्यन्त इस प्रकार दोनों अनुश्रुतियों में स्वीकृत भगवान भवावली दिगम्बर परम्परा के अनुसार है। जीवानन्द ऋषभदेव के पूर्वभव उनकी उन पर्यायों के परिचायक वैद्य की पर्याय में भी ऋषभदेव का वर्णन बड़ा हृदयग्राही हैं जहां उन्होंने इस तीर्थर पर्याय के मूल कारण सम्यहै। विदेह क्षेत्र स्थित क्षिति-प्रतिष्ठित नगर में सुविधि क्त्व के बीज को बोया है। वैद्य के पुत्र के रूप में जीवानन्द अष्टांग मायुर्वेद का ज्ञाता
श्रीमद्भागवत् पुराण के अनुसार तो भगवान् था। हाथियों में जैसे ऐरावत और नवग्रहों में जैसे सूरज विष्णai
विष्णु ही स्वयं ऋषभ रूप में अवतरित हुए थे। यही अग्रणी (मुख्य) होता है वैसे ही सभी वैद्यों में वह ज्ञान-विह
विष्णुपुराण भी कहता है। तथा शिवपुराण के अनुवान् मोर निद्रौप विद्याओं का जानने वाला अग्रणी
सार शिव जी ने अपना वा ऋषभावतार ग्रहण किया हुप्रा। उसे एक दिन एक कोढ़ी साधु का पता लगा था। इस प्रकार जैन तथा वैदिक अनुश्रुतियों के अनुसार जिसकी बड़ी प्रयत्न से चिकित्सा की। अपने अन्य मित्रों ऋषभ देव की सभी पूर्व पर्याय प्रशस्त थीं। के साथ मेरु शिखर के समान एक जिन मन्दिर बन
भरत को भवावलि वाया३। समय प्राने पर जब वैराग्य हुमा तब अन्य
ऋषभ देव के ज्येष्ठ सुपुत्र भरत चक्रवर्ती के पूर्वभवों मित्रों के साथ जिन दीक्षा ले ली४ । मोह राजा के चार
का वर्णन उन्ही के भाई वृषभमेन गणधर ने किया है। मेनांगों के समान चार कपायो को उन्होने क्षमादिक उनके कथनानुसार वह पहले भव में प्रतिगृढ नामक शास्त्रों में जीता। फिर उन्होंने द्रव्य से और भाव से
राजा, दूसरे भव मे नारकी, तीसरे भव में शार्दल, चतुर्थ मलेखना करके कर्मरूपी पर्वत का नाश करने मे वजू के
भव में दिवाकर प्रेमदेव, पञ्चम भव में मतिवर, छठवें समान अनशन व्रत ग्रहण किया। और अन्त मे पञ्च
भव में प्रहमिन्द्र, सातवें भव में सुबाह, आठवें भव में परमेष्ठी का स्मरण करते हुए अपने शरीर का त्याग
महमिन्द्र और नौवें भव में छह खण्ड पृथ्वी के भाखण्ड किया५ ।
पालन कर्ता भरत चक्रवर्ती हुए। इसके अनन्तर शेष भवावलि दिगम्बर परम्परा के
ऋषभदेव की भवावलि में ऐसा कोई भब नहीं जहां अनुसार है। प्रारम्भ से पन्त तक मख्या की विषमता के
भरत की भवावलि की तरह प्रतिगद्ध राजा मोर नारकी कारण दिगम्बर परम्पग की अपेक्षा श्वेताम्बर परम्परा
का भव भी उन्हें भोगना पडा हो! स्वीकृत भवावलि में क्रम की भी विषमता है। जैसे
पूर्व विदेह क्षेत्र स्थित प्रभाकरी नामक नगरो के दिगम्बर परम्परा में स्वीकृत २, ३, ४, ५, ६, ८, ६
राजा के रूप में प्रतिगृध्र अत्यन्त विषयी और बहु परितथा १०वां भव श्वेताम्बर परम्परा मे ४, ५, ६, ७, ८,
ग्रही था। इसी कारण उमें अगले भव में नारकी के दुःखों ६, १०, ११, १२वा भव है। इस क्रम के अनुसार
को भोगना पड़ा। प्रभाकरी नगरी के समीप एक पर्वत दिगम्बर परम्परा में वणित ऋषभदेव का सातवां
पर बहुत सा धन गाड रखा था जिसमे मोह के कारण भव-राजा सुविधि, श्वेताम्बर परम्परा में नौवाभव
नरक से निकल कर उसी पर्वत पर व्याघ्र हुमा। परन्तु सुविधि वैद्य के पुत्र जीवानन्द का भव है।
व्याघ्र होने पर भी उसे एक मात्म कल्याण का अवसर
मिला। पिहतास्रव मुनि के दर्शन से उसे अपने दुःखद पूर्व १. त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित पर्व १, सर्ग १७१६,
जन्मों का स्मरण हो उठा जिससे वह तुरन्त ही शान्त हो ७२६, ७३०। २. वही पर्व १, सर्ग ११७३४-७७७ ॥
६. श्रीमद्भागवत स्कध ५५०३। ३. वही पर्व १, सगं १७९ ।
७. विष्णुपुराण स्कघ २ अ. १०२७ । ४. वही पर्व १ सगं ११७८१ ।
८. शिवपुराण शतरुद्र सहिता प. ४४७ । ५. वही पर्व १, सर्ग २७८६-७८८ ।
९. महापुराण पर्व ३३६३-६४ ।