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जंन और बंदिक नतियों में ऋषभ तवा भरत की भवावलि
सातवां भव-राजा सुविषि
मवमा भव-सम्राट् वचमाभिश्रीधर देव स्वर्ग से च्युत होकर पूर्व विदेह क्षेत्र स्वर्ग से चय कर अच्युतेन्द्र अपने अन्तिम धामिक स्थित सुसीमानगर के राजा का पुत्र सुविधि हुप्रा । शरीर सस्कारों के कारण पूर्व विदेह क्षेत्र स्थित पुण्डरीकिणी मे मुन्दर सुविधि धर्म के प्रान्तरिक सौन्दर्य से भी अलंकृत नगरी में बजसेन राजा के घर वजनाभि नाम का पुष था। बड़े होने पर जितेन्द्रिय राजकुमार मुविधि ने यौवन हमा। बड़े होने पर सौन्दर्यशाली राजकुमार ने शास्त्र के प्रारम्भ समय में ही आन्तरिक शत्रु-काम, क्रोध, रूपी सम्पत्ति का अच्छी तरह अध्ययन किया था इसलिए लोम, मोह, मद और मात्सर्य पर विजय प्राप्त कर ली काम ज्वर का प्रकोप बढ़ाने वाले यौवन के प्रारम्भ समय थी। अपने मामा अभय घोष चक्रवर्ती की सुपुत्री मनो- मे भी उसे मद उत्पन्न नहीं हुमा था। धर्म, अर्थ, काम ग्मा के साथ विवाह कर गृहस्थ धर्मका परिपालन किया। तीनों पुरुषार्थों को सिद्ध करने वाली, महान् फलों को इन्ही सदगहस्थ के घर श्रीमती के जीव-स्वयंप्रभ देव ने देने वाली. लक्ष्मी का पाकर्षण करने में समर्थ राजस्वर्ग से च्युत होकर केशव नामक पुत्र के रूप में जन्म
विद्यानों को पढने के कारण वह लक्ष्मी तथा सरस्वती लिया। बचजघ पर्याय मे जो प्राणप्यारी स्त्री थी वही
का सङ्गम स्थल तो था ही राज्याभिषेक के समय से इन अब पुत्र था ! पुत्र के व्यामोह से गृह त्याग तो नहीं कर
दोनों सखियों के साथ राजलक्ष्मी का सस्नेह मिलन स्थल सका परन्तु श्रावक के उत्कृष्ट पद में स्थित रह कर भी बहो गया। राज्य करते. प्रजा का न्याय नीति से कठिन तप तपता रहा । गृहस्थो के बारह व्रत पालते हुए
पालन करते एक ओर उसके मन को जीत लिया था तो राजर्षि सुविधि ने चिरकाल तक थेष्ठ मोक्षमार्ग की उपा
दूसरी पोर चक्ररत्न से समस्त पृथ्वी को जीत लिया था। सना की। तदनन्तर जीवन के अन्त में परिग्रह रहित
चिरकाल के बाद बुद्धिमान तथा विशाल प्रभ्युदय के दिगम्बर दीक्षा धारण कर उत्कृष्ट मोक्षमार्ग की पारा
धारक चक्रवर्ती वजनाभि ने शिवलक्ष्मी प्रदायक रत्नत्रय धना कर ममाधि मरण पूर्वक शरीर छोड़ा जिससे अच्युत
को-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चरित्र रूप निधि स्वर्ग में इन्द्र हुए।
को-अपने पिता तीर्थकर वज़सेन से पैतृक सम्पत्तिपाठवांभव-अच्युतेन्द्र
गज्यलक्ष्मी की तरह प्राप्त किया और उन्ही के चरणों अत्यन्त सुन्दर तथा श्रेष्ठ शरीर को धारण करने
में उसे जीर्ण तृणवत् त्याग भी दिया ! जिन हाथों नेवाला यह अच्युतेन्द्र प्राने स्वर्ग में उत्पन्न भोगों को
"तू बड़ा मारी चक्रवर्ती हो" यह पाशीर्वाद देते हुए शिर भोगता रहा । इसको दिव्य विभूतियां-देवाङ्गनाएं,
पर राजमुकुट बाधा था वही हाथ दीक्षा के समय वह अप्सगएं तथा विविध सेनाएं उसके पूर्वोपाजित पुण्य के
राजमुकुट ही नही शिर के बाल उखाड फैकने (केश परिणाम स्वरूप थी। चिरकाल तक भोगे जाने वाले
लुञ्चन करने) तक का सकेत कर रहे थे। सम्राट् पौर भोगो का भी अवसान पा गया, अच्युतेन्द्र की प्रायु की।
तीर्थकर, चक्रवर्ती और तपम्वी का यही तो अन्तर या। ममाप्ति सूचक कल्पवृक्ष कुसमों को माला मुरझा गई ! परन्तु धैर्यशाली अच्युतेन्द्र को अन्य साधारण देवों की
महाव्रत, समिति, गुप्ति भोर सम्यक्त्व के धारक, तरह कोई दुख नहीं हुया। उसने अपनी शेष प्रायु भग- उत्कृष्ट तपस्वा, धार वीर प्रशम मूति, शुद्धात्मतत्त्व क वद्भक्ति, जिनेन्द्र पूजा प्रादि शुभ कर्मों को प्रधानता देते
चिन्तक वजनाभि मुनिराज ने अपने पिता तीर्थकर बज्रसेन
के निकट तीर्थङ्कर पद प्राप्ति मे सहायक कारण-सोमह हए व्यतीत की।
कारण भावनामों का चिन्तवन किया। १. महापुराण पर्व १०११२१,२२,४१,४३,४५,५६,६८ से
"परिग्रह पोट उतार सबलीनों बारित पन्य। ७० तक।
निज स्वभाव में घिर भये वजानामि निय॥" २. महापुराण पर्व १०॥ ३. वही १२-६
४. वही १२१८, ६, ३४, ५८, ६१, १२, ६८।