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अनेकान्त
उत्ताल तरंगों से उलित हो! पुत्री की विह्वल अवस्था मजदूत किवाड़ हैं, धर्मरूपी वृक्ष की स्थिर जड़ है, स्वर्ग एवं करुणाजनक स्थिति का अवधिज्ञान से परिज्ञान कर और मोक्ष रूपी घर का द्वार है और शीलरूपी रत्नहार उसे समझाया। पण्डिताधाय ने श्रीमती के पूर्वभव का के मध्य में लगा हुमा श्रेष्ठ रत्न है।" परिचायक चित्रपट लेकर जिन चैत्यालय में जाकर वन
सम्यग्दर्शन के विषय में मुनिराज के दिव्योपदेश जंध का पता लगा लिया और चित्रपट देख कर वनजंघ भी अपने पूर्वभव का स्मरण कर अत्यन्त प्रेम विह्वल हो
से प्रभावित होकर इस दम्पति-मार्य तथा आर्या ने सम्यग्गया। अन्ततोगत्वा दो विछुड़े प्रेमी हृदयों का मिलन हो
दर्शन को धारण किया। गया । श्रीमती के पिता चक्रवर्ती बच्चदन्त ने वजजघ के छठाभव-श्रीधर देवपिता वनवाहु द्वारा अपने पुत्र के लिए कन्यारत्न (श्री जीवन में मंगहीत सम्यग्दर्शन की पूजी ने अन्त मती) की याचना का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। शुभ ममय तक अक्षय निधि का काम दिया। इसी से वह मुहु त में दोनों का विवाह हो गया। विवाह के अनन्तर आगामी भव में श्रीधर देव हए । आगामी काल में दोनों का गृहस्थ जीवन भोगोपभोग मे व्यतीत होता था तीर्थदूर होने वाले इस श्रीधर देव ने अनेक विध परन्तु धर्म को भी उन्होंने सदा निवाहा। भगवान की स्वर्गीय सुखों का उपभोग किया५ । एक दिन अवधिज्ञान पूजा तथा दान उनके सत्कर्म थे । दमधर तथा सागरसेन से श्रीप्रभ पर्वत पर अपने गुरु प्रीतिङ्कर मुनिराज का नाम के दो मुनिराजों को पुण्डरीकिणी नगरी की यात्रा मागमन जानकर वहां जाकर उनकी पूजा की। अपने के समय मार्ग मे पाहार दान देकर उन्होने अपने जन्म प्रश्न के उत्तर में अपने दुष्कर्मी मन्त्रियों का नरक निगोद को सफल माना था।
मे जीवन यापन ज्ञातकर धर्म और अधर्म के अन्तर को पांचवां भव-उत्तर कुरु में प्रायं
श्रीधर देव की आत्मा सोचने लगी। मुनिराज ने नरक इस पात्र दान के प्रभाव से आगे चलकर वह उत्तर तथा निगोद के भयानक दु.खों का वर्णन करते हुए कुरु मे मार्य हुए। एक चारण ऋद्धिधारी मुनि (जो कि धर्म का महत्व बतलाया। "धर्म ही दुःखो से रक्षा करता महाबल की पर्याय में उनके स्वयंबुद्ध नामक मन्त्री थे) है, मुख को विस्तृत करता है और कर्मों के क्षय से उत्पन्न वहां पाये और उन्होने अपने पूर्वभव का परिचय देते हए होने वाले मोक्ष सुख को देता है। इसी से चक्रवर्ती, गणउन्हें सम्यक्त्व ग्रहण करने का उपदेश दिया।
धर, तीर्थङ्कर तथा सिद्ध पद प्राप्त होता है। धर्म ही सम्यकदर्शन का स्वरूप बतलाते हुए मुनिराज ने जीवों का बन्धु, मित्र तथा गुरु है। इसलिए हे देव ! कहा-"वीतराग सर्वशदेव, प्राप्तोपज मागम और जीवादि स्वर्ग और मोक्ष के देने वाले धर्म में ही अपना मन पदार्थों का बड़ी निष्ठा से श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कह- लगा।" प्राचार्य श्री के धर्मोपदेश से श्रीधर देव प्रतिलाता है । जीवादि सात तत्वों का तीन मूढता रहित गय धर्म प्रेम को प्राप्त हुआ। अपने इस धर्म लाभ से पाठ अंग सहित यथार्थ श्रदान करना सम्यग दर्शन कह- उमने अपने महाबल काल के मिथ्यात्वी मन्त्री-शतबुद्धि लाता है। इसलिए हे आर्य ! पदार्थ के ठीक-ठीक ।
को नरक में जाकर समझाया। सम्यक्त्व ग्रहण कराया स्वरूप का दर्शन करने वाले सम्यग्दर्शन को ही न धर्म जिससे वह वहा से निकल कर चक्रवर्ती का राजपत्र हमा का सर्वस्व समझ । उस सम्यग्दर्शन के प्राप्त हो चुकने पर तदनन्तर पुनः श्रीधर के उपदेश से दैगम्बर दीक्षा ग्रहण संसार में ऐमा कोई मुख नहीं रहता जो जीवों को प्राप्त
कर तपश्चर्या के प्रभाव से स्वर्ग में ब्रह्मन्द्र हमा७ । नहीं होता हो। यह सम्यग्दर्शन मोक्षरूपी महल की
४. महापुराण पर्व ।।१२६ से १३२ । पहली सीढ़ी है, नरकादि दुर्गतियों के द्वार को रोकने वाले
५. वही १९५ १. महापुराण पर्व ६ से ८ तक।
६. वही १०११०७-१०९ २-३. वही १२१-१२२ ।
७. वही ११११०-११०