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बेन और वैविक अनुभूतियों में ऋषभ तथा भरत की भवावलि
हों।" इस भावना के समय ही भयङ्कर सर्प-दंश१ से श्वेताम्बर सम्प्रदाय में महाबल चौथाभव माना गया परलोक वासी हो गये। इस निदान का फल उन्हें मिला। है। दूसराभव महाबल
तीसराभव ललिताङ्गदेवपूर्व भव के निदान जनित संस्कार के कारण महाबल अतिशय तप के मनोहर फलस्वरूप महाबल का जीव विद्याधर हुए। अपने पिता अतिबल के दीक्षा ग्रहण कर सातिशय विभूतिशाली स्वर्ग में ललिताङ्ग देव हुमा । लेने पर बलशाली महाबल ने राज्य भार संभाला। वह अपने किये हुए पुण्य कर्म के उदय से मन्द मन्द मुस्कान देव और पुरुषार्थ दोनों से सम्पन्न थे। उनके धर्म, अर्थ, हास्य और विलास प्रादि के द्वारा स्पष्ट चेष्टा करने वाली काम परस्पर में प्रवाधित थे, वहिरङ्ग शत्रुनों पर जैसे
स्वयंप्रभा मादि अनेक देवाङ्गनामों तथा अनेक स्वर्गीय राजनीति से विजय प्राप्त की थी वैसे ही अन्तरङ्ग शत्रुओं
विभूतियों के समागम से चिरकाल तक अपनी इच्छानुसार पर-काम, क्रोध, मद, मात्सर्य, लोभ और मोह पर भी धर्म
उदार और उत्कृष्ट दिव्य भोग भोगता रहा४। एक दिन नीति से विजय प्राप्त की थी। राजा महाबल के राज्य
पायु का अवसान सूचक मन्दार माला मुरझा गई। रज में 'अन्याय' का शक ही मिट गया था, प्रजा को भय तथा
मे भङ्ग पड़ गया। ललिता देव को स्वर्ग से व्युत होने क्षोभ कभी स्वप्न में भी नही होते थे। जिसे भागे चल
का पाघात तो लगा परन्तु सामानिक जाति के देवों के कर तीर्थर की महनीय विभूति प्राप्त होने वाली थी
द्वारा समझाये जाने पर धैर्य धारण कर उसने धर्म में ऐसा वह महाबल राजा मेरु पर्वत पर इन्द्र के समान
बुद्धि लगायी और पन्द्रह दिन तक समस्त लोक के जिन विजयार्थी पर्वत पर चिरकाल तक क्रीड़ा करता रहा।
चैत्यालयों की पूजा की। तत्पश्चात् अच्युत स्वर्ग की स्वय बुद्ध मन्त्री के प्रश्न के उत्तर मे अवधि ज्ञानी
जिन प्रतिमानो की पूजा करता हुमा वह भायु के अन्त में मुनि मादित्यगति ने महाबल को भव्यात्मा तथा दसर्व
वहीं सावधान चित्त होकर चैत्य वृक्ष के नीचे बैठ गया भव में जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र मे युग के प्रारम्भ मे
तथा वही निर्भय हो हाथ जोड़कर उच्च स्वर से नमस्कार ऐश्वर्यवान ऋषभदेव तीर्थङ्कर होना बतलाया। मुनि के
मन्त्र का ठीक-ठीक उच्चारण करता हुमा अदृश्यता को कथनानुसार महाबल ने भावी तीर्थङ्करत्व की प्राप्ति
प्राप्त हो गया। उसकी प्राणप्रिया स्वयंप्रभा भी अपने तथा अतिशय क्षीण घायु के सूचक दो-शुभ और अशुभ
वियोग के शेष दिन धर्मध्यान पूर्वक व्यतीत करते करते स्वप्न भी देखे। जिनका उक्त फल मुनिराज के बताये
चल बमी। अनुसार स्वय बुद्ध मन्त्री मे ज्ञात कर समाधि मरण की ओर अपना चित्त लगाया। अपना समस्त राज्य पुत्र को चतुर्थभव-राजा वनजंघदेकर स्वयं निश्चिन्त होकर माराधना रूपी नाव पर चढ ललिताङ्ग देव स्वर्ग से चलकर विदेह क्षेत्र स्थित कर संसार सागर को पार करने लगा। तप रूपी अग्नि उत्पलखेट नगर मे राजा वजावाहु के वज्रजप नाम का मे सतप्त स्वर्ण की तरह विशुद्ध हुमा । महाबल परिषहो पुत्र हुमा । पौर ललिताङ्ग देव की प्रियपत्नी स्वयप्रभा को सहन करते हुए पञ्चपरमेष्ठी का ध्यान करने लगा। वज्रजंघ के मामा की लड़की धीमती हुई। दोनों ही जैसे तपः पूत महाबल ने ध्यानरूपी तेज के द्वारा मोहरूपी ललिताङ्गकी पर्याय में सुन्दर इस भव में भी वैसे ही अन्धकार को नष्ट कर शुद्ध प्रात्म-स्वरूप को भावना सुन्दर थे। दोनों के हृदय में पूर्व जन्म का प्रेम सागर करते हुए स्वयम्बुद्ध मन्त्री के समक्ष प्राणो का त्याग कर अपरिचितता के बाध में बंधा था परन्तु श्रीमती को जैसे दिया।
ही एक दिन आकाश में जाते हए विद्याधरों को देखकर १. महापुराण पर्व श२०३-२०६
अपने पूर्वमव के पति की स्मृति जागी प्रेमसागर अपनी २. वही ११५६, ६०, ५, ६६ से १८
४. वही श२६७, २६३ ३. वही ५५१९७-२०१, २२०, २२६, २३०, २४१-२४८ ५. वही ६।२, २३ से २५