Book Title: Anekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 350
________________ रामचरितका एकतुलनात्मक अध्ययन बुहारती हुई-पापका पथ प्रशस्त करती हई चलूंगी१। ६. मेघनाद भीम पराक्रमी था। उसने लक्ष्मण को परन्तु श्रीराम सुख-दुख मे सम भाव रखने वाले महासत्त्व बक्षस्थल पर शक्तिबाण मारा था। लक्ष्मण के चौड़े बक्ष हैं। राज्याभिषेक समाचार से उन्हें प्रसन्नता नहीं हुई पर उसका छाला पड़ गया था। बन से वापस पाने पर और वनगमन से विषाद नहीं हुमा। श्रीतुलसीदास ने जब माता ने उस छाले के विषय में पूछा तो यह जानकर लिखा है-ऐसा समता भाव रखने वाली श्रीराम को उन्हें बहुत कष्ट हुमा कि शक्तिबाण से मेरा पुत्र मूच्छित निश्चयनिष्ठा मुझे मगल प्रदान करे। हो गया था परन्तु लक्ष्मण ने कुछ और ही कहा। वह ४. श्रीलक्ष्मण सर्वत्र रामचन्द्रजी के अनुगामी हैं। बोले४ हे माता! मैं तो इस विषय में बहुत स्वल्प श्रीराम के बिना उनकी स्थिति पानी से पृथक् किये हुए जानता है। विशेष तो श्रीराम जानते हैं। क्योंकि वेदना मत्स्य के समान है। वह रात्रिदिन अनिद्रायोग साधकर तो उन्हें ही हई, मुझे तो यह व्रणमात्र हुमा है। इन श्रीराम सीता के 'प्रहरी होकर चतुर्दश वर्ष पर्यन्त अनि- शब्दों में जो विश्वास, भक्ति तथा निष्ठा है, वह अपूर्व है। मीलित वीरासन से बैठे रहे। अपने सम्पूण वनवास समय ७. भगवान श्रीराम कृतज्ञशिरोमणि हैं । हनुमान मे वह मेघनाद का शक्ति बाण लगने के समय मूछित और के उपकारों का स्मरण कर पुलकित हो उठते है। हे होने पर ही अल्प समय निद्राधीन से हुए अन्यथा पहनिश " कपे ! तुम्हारे एक-एक उपकार के विनिमय में मैं अपने जागते रहे । बन जाते समय लक्ष्मण की माता ने कहा था प्राण ही भेंट कर सकता हूँ। इस पर भी तुम्हारे उपकार कि हे पुत्र ! तुम श्रीराम को दशरथ के समान, सीता को मुझ पर शेष रह जायेंगे। मैं चाहता हूँ कि यह ऋण मुक मेरे समान, वनभूमि को अयोध्या समझ कर सुख पूर्वक पर बना रहे। क्योंकि विपत्तियों में ही उपकार को अपने ज्येष्ठ भ्राता का अनुगमन करो। और रात दिन लौटाया जा सकता है । तुम पर कभी विपत्ति न पाए। मेवा करते हुए लक्ष्मण ने श्रीराम सीता को पर्णकुटी बना ८. लक्ष्मण सीता को माता-समान मानते हैं। उनकी कर दी, फल मूल दिये, नदियों का स्वच्छ जल पात्र में । दृष्टि सदा जानकी के चरणों तक सीमित है । जब श्रीराम भर कर लाये और धनुर्वाण लेकर जब श्रीराम-सीता सोये उन्हें सीता द्वारा फेंके हुए प्राभूषणों का परिचय पूछते हैं हुए होते, वीरासन लगाकर पहरा दिया-सेवकधर्म को तो यह सत्य सामने पाता है। लक्ष्मण कहते हैं हे राम! मनोयोग से निबाहा । मैं सीत के बाहुनों के आभूषण नहीं जानता, मैं उनके ५. श्रीराम का लक्ष्मण पर प्रत्यधिक स्नेह था। कुण्डलों को भी नहीं पहचान सकता। मैं तो चरणों के जब लक्ष्मण मेघनाद के शनिबाण से पीडित होकर नूपुरों को जानता हूँ जो नित्य प्रणाम के समय मुझे दिखाई मूछित हो गये तब वह शोक से व्याकुल होकर कहने लगे। देते थे६ । शील और विनय का कितना उज्ज्वल उदाहरण स्त्रिगां सर्वत्र मिल जाती हैं, मित्र स्थान-स्थान पर प्राप्त - है। ये प्रादर्श ही भारत की सांस्कृतिक निधि के रत्न हैं। हो जाते है किन्तु वह स्थान ससार मे कही नहीं, जहां खोया हमा सहोदर भाई मिल सकता हो। 'मिलहि न ४. 'ईशन्मात्रमह वेदमि विशेषं वेत्ति राषवः । जगत सहोदर भ्राता'३ वेदना रामचन्द्रस्य केवलं व्रणिनो वयम् ॥' ५. 'एककस्योपकारस्य प्राणान दास्यामि ते कपे। १. 'यदि त्वं प्रस्थितो दुर्ग वनमद्यैव राघव ! शेषस्येहोपकारस्य भवाम ऋणिनो वयम् ॥ अग्रतस्ते गमिष्यामि मृनती कुशकण्टकान् ॥' मदंगे जीर्णतां यातु यत्त्वयोपकृतं कपे ! न्या. रामा० २।११।६ २. 'प्रसन्नतां या न गताऽभिषेकतस्तथा न मम्ले बनवासःखतः नरः प्रत्युपकाराणामापत्स्वायाति पात्रताम् ॥' मुखाम्बुजश्री रघुनन्दनस्य सा सदाऽस्तु मे मंजुलमंगलप्रदा।' वा० रामायण -तुलसी, रामचरित. ६. 'नाहं जानामि केयूरे नैव जानामि कुण्डले । ३. 'देशे देशे कलत्राणि देशे देशे च बान्धवाः । नूपुरे त्वभिजानामि नित्यं पादाभिवन्दनात् ॥' तंतु देशं न पश्यामि यत्र भ्राता सहोदरः ॥'बारामा. -बा. रामायण

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