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रामचरित का एक तुलनात्मक अध्ययन
१३. श्रीराम का चरित्र शिष्टपालन और मशिष्ट थे। समय पर वर्षा होती थी, पवन का सुखस्पर्श संचार निग्रह के लिए प्रादर्शभूत है। रावण के साथ उनका युद्ध था, भीषण प्राधियां नहीं चलती थी, लोग अपने-अपने धर्म प्रशिष्टनिग्रह के लिए है। 'मरणान्तानि वैराणि' कोई मे प्रवृत्त हो पौर सन्तुष्ट रहते थे। मिथ्या भाषण नहीं महापुरुष ही कह सकता है। यदि राम पत्नीहरण को करते थे और धर्मपरायण थे। प्रात्महत्या कोई नहीं सहन कर लेते तो पार्यजाति के इतिहास की कलंकमषी करता था । को युग-युगान्तर भी प्रक्षालित नहीं कर पाते । श्रीराम ने १६. संसार में राज्यसंचालन के लिए दण्डव्यवस्था भावपार्यों का मुख उन्नत कर दिया। 'विजयदशमी' पर्व श्यक होतो है। दण्ड लगाये बिना ध्वजाका वस्त्र भी मनाने का सौभाग्य प्रदान किया, यह पर्व राम के अद्भुत स्फुरित नहीं होता । न्यायदण्ड भय से प्रजा नियम-संहिपगक्रम का स्मरण दिलाता है। साथ ही निर्देश करता तानों का पालन करती है परन्तु धर्म शासन के बिना है कि शत्रु चाहे कितना ही बलवान हो, अपने अपमान नियमों का निर्धारण भी नही किया जा सकता। नियमों का प्रतिशोध मानशील को लेना ही चाहिये । जो न्याय के की रचना, न्याय का पाधार धर्म होता है। जिस राष्ट्र पथ पर चलता है उसकी सहायता वानरभालू भी करते है से धर्म बहिष्कृत हो जाता है, वहां की श्रीसमृद्धि क्षीण और अन्याय के मार्ग पर चलनेवाले को सगे बन्धु भी होती जाती है। धर्म रक्षा से ही मानवता की भावना को छोड जाते है।। यही हेतु था कि रावण को विभीषण न जीवन मिलता है, मर्यादानों की स्थापना होती है। छोड़ दिया।
१७. 'रामो विग्रहवान् धर्मः' वाल्मीकि महर्षि ने १४. श्रीराम सत्य ही राजशिरोमणि है, प्रजावत्सल श्रीराम को धर्म कहा है 'साक्षात् धर्म इवापरः' वह साक्षात् हैं। 'राजा प्रकृतिरजनात्' राजा वह होता है जो प्रजा धर्म ही हैं। प्राचीन भारत मे स्तेति करने योग्य कोई है का रजन करे। श्रीराम इस नियम के परिपालक है। तो वह मर्म अथवा धर्मात्मा है । जब-जब उत्तम लेखकों ने इसमें बाधा मानेपर वह परममाध्वी सीता का तत्क्षण उनकी प्रशंशा करने को गुणचयन किया है तो उनमे धर्म परित्याग कर देते है। क्योंकि राजकुल की प्रकीति- के दर्शन किये हैं। कालिमा प्रजा को लगती है। कीर्ति का प्रसार भले ही १८. राम वीतराग हैं। वह योगवासिष्ठ मे कहते विलम्ब से हो परन्तु अयश का विस्तार सद्यः होता है। हैं-'मैं राम नामाकित कोई व्यक्ति नहीं। विषयों मे चन्द्रमा की ज्योत्स्ना दर से दिखाई देती है किन्तु कालिमा मेरा अनुराग नही। मैं तो शान्तभाव से प्रात्मरूप होकर को लोग तुरन्त देख लेते है। श्रीराम ने लक्षमण को अपनी प्रात्मा मे जिन भगवानके समान रहना चाहता हूँ।' बताया कि 'सूखे ईन्धन के ढेर मे लगी हई अग्निके समान -
२. न पर्यदेवन् विधवा न च व्यालकृतं भवम् । यह अपयश प्रजा में व्याप्त नही हो, वैसा यत्न मैं करना
न व्याषिजं भयं चासीद राम राज्य प्रशासति । चाहता है। क्योंकि जिसकी दिशाए प्रकीति वह्नि मे जल
निर्दस्युरभवल्लोको नानर्थ कश्चिदस्पृशत् । रही हैं उनका जीवन किस कामका? 'प्रजनीय यशोधनम्'
न च स्म वृद्धा बालानां प्रेतकार्याणि कुर्वते ।। यही मनस्वियों का जीवनवत होता है।
सर्व मुदितमेवासीत् सर्वो धर्मपरोऽभवत् । १५. श्रीराम का राज्य धर्मराज्य है। प्रधर्म के लिए
राममेवानुपश्यन्तो नाभ्यहिंसन् परस्परम् ॥ वहां कोई स्थान नहीं। वाल्मीकि ने लिखा है कि 'राम
नित्यमूला नित्यफलास्तरवस्त्र पुष्पिताः । राज्य में स्त्रियां विधवा नहीं होती थी, हिंसकों का भय
कामवर्षी च पर्जन्य. सुखस्पर्शश्च मारुत.।। प्रजा मे नहीं था, रोग से प्रजा मुक्त थी। किसीको अनर्थ
सर्व लक्षणसम्पन्ना. सर्व धर्मपरायणाःस्पर्श नही करता था, वृद्धजन बालकों का प्रेतकाय नही
(वाल्मीकि रामायण, युद्धकाण्ड ७५।२६-३५) करते थे। वृक्ष नित्यफल देते थे और पुष्पों से लदे रहते
३. नाहं रामो न मे वाञ्छा भावेष्वपि न मे मनः । १. 'यान्ति न्यायप्रवृत्तस्य तिर्यचोऽपि सहायताम् ।
शान्त प्रासितुमिच्छामि रवात्मनीव जिनो यथा ॥' प्रपन्यानं तु गच्छन्तं सोदरोऽपि विमुञ्चति ।'
-योगवाशिष्ठ १५८