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अनेकान्त
सोलह कारण भावनामों का चिरकाल तक चिन्त- जो सारी पृथ्वी को पवित्र करती थी। वह सब के लिए वन करने के अनन्तर तीर्थङ्कर नामक महापुण्य प्रकृति सेव्य था। उसमें यश रूपी वृक्ष के उदारता गम्भीरता का बन्ध किया । उग्र तपश्चरण द्वारा कर्मरूपी शत्रुओं का और धीरज रूपी उत्तम बीज को समृद्धि का साकार पुज्य, विनाश करते हुए वजनाभि मुनिराज ने सिद्धपद की प्राप्ति धनी, गुणी और यशस्वी सेठ के नौकर भी उसकी उदा. की कामना से धर्मध्यान में लवलीन होकर पृथकत्व रता से धनी थे४। गांव के लोग तपा धर्मघोष प्राचार्य वितर्क नामक शुक्लष्यान को पूर्ण कर उत्कृष्ट समाधि के साथ उसकी वसन्तपुर की यात्रा उसकी सहृदयता का को प्राप्त हुए । अन्त में उपशान्त मोह नामक ग्यारहवें परिचायक है। इसी यात्रा में धर्मघोष प्राचार्य मादि मुणस्थान मे प्राण छोड़कर सर्वार्थसिद्धि में महमिन्द्र हुए। मुनि संघ की सेवा के उपलक्ष्य में उन्हें मोक्ष वृक्ष के बीज बसा भव-महमिन
के समान सम्यक्त्व प्राप्त हुमा५ । पूर्वोपाजित पुण्य, धर्म के प्रभाव से सर्वार्थ सिद्धि श्रीधर्म घोष प्राचार्य ने धर्मोपदेश देते हए सेठ से विमान में दोष, धातु और मल के स्पर्श से रहित सुन्दर कहा-"धर्म उत्कृष्ट मंगल है, स्वर्ग और मोक्ष को देने मक्षगों से युक्त, पूर्ण यौवन को प्राप्त, स्वभाव से ही वाला है । और संसार रूपी वन को पार करने में रास्ता सर्वाङ्ग सुन्दर महमिन्द्र अमृत पिण्ड के द्वारा ही बनाया दिखाने वाला है। धर्म माता की तरह पोषण करता है, सा, चांदनी से घिरे पूर्ण चन्द्रमा सा, गंगा तट के बाल पिता की तरह रक्षा करता है, मित्र की तरह प्रसन्न के ढेर पर बैठे तरुण राजहस सा, उदयाचल पर स्थित करता है, बन्धु की तरह स्नेह रखता है। गुरु की तरह सूर्योदय सा अथवा स्वर्गलोक के एक शिखामणि सा उजले गुरणों मे ऊची जगह चढ़ाता है और स्वामी की साक्षात् धवल पुण्यराशि के समान शोभायमान हुमा था। तरह बात प्रतिष्ठित बनाता है। धर्म सुखों का बड़ा
भगवद्भक्ति, जिनेन्द्र पूजा, तत्वचर्चा और जिनेन्द्र- महत्व है, शत्रुओं के संकट में कवच है सरदी से पैदा हई गुण स्तवन, चिन्तवन उसकी दिनचर्या के प्रमुख अंग को जड़ता को मिटाने में धूप है, और पाप के मर्म को जानने स्वर्गीय भोगोपभोग की समस्त सामग्री उसके समक्ष झाड वाला है। धर्म से जीव राजा बनता है। बलदेव होता है, कर फंक जाने वाले कडा के ढेर के समान तुच्छ थी। अर्द्धचक्री (वासुदेव) होता है, चक्रवर्ती होता है। देव इसलिए महमिन्द्र होते पर भी अहमिन्द्र पने का अभिमान और इन्द्र होता है, वेयक और अनुत्तर विमान (नामके उसे नहीं था।
स्वगों) मे अहमिन्द्र होता है और धर्म से ही तीर्थङ्कर चिरकाल तक वास्तविक सुख भोगने के अनन्तर होता है । अपने सर्वार्थसिद्धि विमान मे रहने की मायु पूर्ण करने
धर्म परायण सम्यक्त्वी धन सेठ का जीव दूसरे भव पर महमिन्द्र स्वर्गलोक से पृथ्वी तल पर अवतार लेने म मुनि को दान देने के प्रभाव से उत्तर कुरु क्षेत्र में सन्मुख हुमा३।
युगलिया रूप मे जन्मा। वहा कल्पवृक्षों से इच्छित पदार्थों श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार विदेह क्षेत्र स्थित
की प्राप्ति के कारण सदा सुख ही सुख रहता है । इसलिए
धनसेठ का जीव स्वर्ग की तरह विपय सुख का अनुभव प्रतिष्ठित नगर में प्रथम भव मे ऋषभदेव का जीवधर
करने लगा। सेठ था । नदियों के प्राश्रय समुद्र की तरह वह धन तथा
युगलिया की प्रायु पूर्ण कर धनसेठ का जीव पूर्वभव यश का माश्रय चन्द्रमा की शीतल सुखद चादनी की तरह
के दान के फल से सौधर्म देवलोक में देवता हुमा । उसके द्रव्य का संदुपयोग सार्वजनीन सुख के लिए था। पन सेठ रूपी पर्वत से सदाचार रूपी नदी बहती थी।
४. त्रिपष्ठि शलाका पुरुषचरित पर्व १, सर्ग ११३५.४।
५. , , सर्ग १२१४३ । १. महापुराण पर्व १११७६,८२,८४,११०,१११
, सर्ग १२१४६-१५१ २. वही १२३ से १३२, १३४ से १४३ ।
त्रिषष्ठि शलाका पूरुषचरित पर्व १, सर्ग १।२२६, ३. वही १२१
२३७, २३८ ।