Book Title: Anekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 341
________________ जैन और वैदिक अनुश्रुतियों में ऋषभ तथा भरतकी भवावलि ० नरेन्द्र विद्यार्थी साहित्यार्य, एम. ए. पो-एच. डी. प्रस्तुत प्रबन्ध में ऋषभ देव तथा भरत की पूर्व भवा ऋषभदेव की भवावलि वलियों का तुलनात्मक अध्ययन होगा जिसमे यह स्पष्ट दोनों परम्परामों के अनुसार ऋषभदेव की भवावलि किया जावेगा कि दोनों पिता-पुत्र ने कहाँ, किस स्थिति ___ इस प्रकार है :मे, किस प्रकार भोगों की इच्छा के साथ धर्म का बीज दिगम्बर परम्परा श्वेताम्बर परम्परा बोया जिसके सदाचार रूपी वृक्ष मे सद्गति के सुफल १. जयवर्मा १. घन सार्थवाह (धनभव सेठ) फले । धर्म एक वृक्ष है, अर्थ उसका फल है और काम .. महाबल विद्याधर २. युगलिया उसके फलों का रस है । धर्म, अर्थ और काम यह त्रिवर्ग ३. ललिताङ्ग देव ३. सौधर्मलोक में उत्पत्ति कहलाते हैं जिसकी प्राप्ति का मूल कारण धर्म है। धर्म ४. राजा बजजघ ४. महाविदेह क्षेत्र में महाबल से ही अर्थ, काम और स्वर्ग की प्राप्ति होती है। धर्म ही ५. भोगभूमि का मार्य ५. ललिताङ्ग देव मर्थ और काम की उत्पत्ति का स्थान है। धर्म का इच्छुक ६. श्रीधर देव ६. वाजघ समस्त इष्ट पदार्थों का इच्छुक होता है तथा वह अपने ___७. राजा सुविधि ७. उत्तर कुरु मे युगलिया अनकल धन, सुख, सम्पत्ति आदि को प्राप्त भी करता है। ८. अच्युतेन्द्र ८. सौधर्म स्वर्ग में देव विज्ञ जन धर्म को कामधेनु, चिन्तामणि रत्न, कल्पवृक्ष ह. राजा वचनाभि १. जीवानन्द वैद्य तथा प्रक्षयनिधि कहते हैं। न केवल ऐहिक संकट; पार- १०. अहमिन्द्र १०. अच्युत स्वर्ग मे देव लौकिक संकटों से भी धर्म ही बचाता है। नरक निगो- ११. ऋषभदेव ११. वज्रनाभ चक्रवर्ती . दाधिकेदःखों से बचा कर अन्त में अविनाशी मुख-मोक्ष (महापुराणके आधार पर) १२. उत्तर विमान मे देव की प्राप्ति भी धर्म के द्वारा ही होती है। इसी परम १३. ऋषभ देव पावन धर्म के भव-भव में साथी होने के कारण सम्यक्त्वी (त्रिषष्ठि शलाका पुरुषचरित के प्राधार पर) धर्मात्मा ऋषभदेव तथा उनके सुपुत्र चक्रवर्ती भरत प्राज प्रथमभव जयवर्माभी विश्ववन्ध हैं। जम्बू द्वीप के पश्चिम विदेह क्षेत्र स्थित सिंहपुर के ऋषभदेव अपने १० भवों के बाद ग्यारहवें भव में राजा श्रीषेण के द्वारा छोटे पुत्र श्री वर्मा को राज्य दिये भगवान ऋषभदेव बनेर और भरत अपने नवयें भव मे जाने तथा जयवर्मा जो कि बड़ा पुत्र था; उपेक्षा किये चक्रवर्ती भरत बने३। जाने के कारण जयवर्मा को एक बडा प्राघात लगा। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार ऋषभदेव १३वें भव "एक ही पिता के दो पुत्रों में इतना बडा अन्तर? धिक में भगवान ऋषभदेव बने। है लघु पुत्र स्नेह ! और प्रियना का व्यामोह !! वास्त. १. महापुराण पर्व १३१-३७ विक सुख प्रात्मशान्ति में है और पात्म-शान्ति प्रात्म २. वही ४७।३५७-३५६, विस्तृत वर्णन पर्व ४ से १२ कल्याण है।" इस विवेक के ज्ञान ने जयवर्मा को विरागी बना दिया ! अपने पापकर्मोदय की निन्दा करते हुए ३. वही ४६।२६३-२६४ उन्होंने दैगम्बरी दीक्षा ग्रहण कर तपस्या करने लगे। ४. त्रिषष्ठि शलाका पुरुष परित पर्व १ सर्ग १-२॥ परन्तु "भागामी भव में विद्याधरों के भोगोपभोग प्राप्त तक।

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