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श्रमण संस्कृति के उद्भावक ऋषभदेव
परमानन्द शास्त्री
मंस्कृति शब्द अनेक अर्थों में रूढ है, उनकी यहां कर तपश्चरण करते हैं, प्रात्म-साधनों में निष्ठ, मोर विवक्षा न कर मात्र संस्कारों का सुधार, शुद्धि, सभ्यता, ज्ञानी एव विवेको बने रहते हैं, (धामयन्ति ब्राह्माभ्यन्तरं आचार-विचार और सादा रहन-सहन विवक्षित है। भारत तपश्चरन्तीति श्रमणः) जो शुभ क्रियायों में, अच्छे बुरे मे दो सस्कृतिया बहुत प्राचीन काल से प्रवाहित हो रही विचारों में, पुण्य-पापरूप परिणतियो मे तथा जीवन-मरण, हैं। दोनों का अपना अपना महत्व है ही, फिर भी दोनों सुख-दुख मे और प्रात्म-साधना से निष्पन्न परिस्थितियों में हजारों वर्षों से एक साथ रहकर भी महयोग और विरोध रागी द्वेषी नही होते प्रत्युत समभावी बने रहते है, वे को प्राप्त होती हुई भी एक दूसरे पर प्रभाव अवित किये श्रमण कहलाते है। हुए हैं। इनमें एक सस्कृति वैदिक और दूसरी प्रवैदिक
जो सुमन हैं-पाप रूप जिनका मन नहीं है, स्वजनों है। वैदिक संस्कृति का नाम ब्राह्मण सस्कृति है। इस पार सामान्यज
होम और सामान्यजनो मे जिनकी दृष्टि समान रहती है। जिस मस्कृति के अनुयायी ब्राह्मण जब तक ब्रह्म विद्या का अन- तरह दुख मुझे प्रिय नही है, उसी प्रकार ससार के सभी प्ठान करते हुए अपने आचार-विचागे में दृढ़ रहे तब तक
जीवो को प्रिय नहीं मो मकना। जो न स्वय मारते हैं और उममे कोई विकार नहीं हुमा; किन्तु जब उनमे भोगेच्छा न दूसरों को मारने की प्रेरणा करते हैं। किन्तु मानऔर लोकेषणा प्रचुर रूप मे घर कर गई तब वे ब्रह्मविद्या अपमान में समान बने रहते है, वही सच्चे श्रमण हैं। को छोड़ कर शुष्क यज्ञादि क्रियाकाण्डों में धर्म मानने लगे, प्राचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है कि जो श्रमण शत्रु नब वैदिक सस्कृति का ह्रास होना लुरू हो गया। और बन्धुवर्ग मे समान वृत्ति है, सुख-दुख मे समान है,
दूसरी सस्कृति अवैदिक है उसका नाम श्रमण मस्कृति निन्दा-प्रशंमा मे समान है, लोह और कांच में समान है, है। प्राकृत भापा मे इसे समन कहते है और संस्कृत में जीमन-मरण मे समान है, वह श्रमण है। जैसा कि निम्न श्रमण । समन का अर्थ समता, राग-द्वेष से रहित परम गाथा से स्पष्ट हैशान्त अवस्था का नाम समन है। अथवा शत्रु-मित्र पर समसत्तुबंधुवग्गो समसुहदुग्यो पसंसनिव-समो। जिसका समान भाव है ऐसा साधकयोगी समण या श्रमण समलोट्ट कचणो पुण जीविय मरणे समो समणो॥ कहलाता है। 'श्रमण' शब्द के अनेक अर्थ है, परन्तु उन
(प्रव० ३.४१) सभी प्रर्थो की यहा विवक्षा नही है, किन्तु यहां उनके
जो पाच समितियों, तीन गुप्तियो तथा पाच इन्द्रियों दो प्रर्थों पर विचार किया जाता है। थम धातु का अर्थ ।
र का निग्रह करने वाला है, कषायों को जीतने वाला है, खेद है। जो व्यक्ति परिग्रह-पिशाच का परित्याग कर दर्शन, ज्ञान, चरित्र सहित है, वही श्रमण सयत कहघर-बार से कोई नाता नही रखते, अपने शरीर से भी लाता है :निर्मोही हो जाते हैं, वन मे आत्म-साधना रूप श्रम का १-सो समणो जइ सुमणो, भावेण जइ ण होह पावमणो।
आचरण करते हैं, अपनी इच्छानों पर नियंत्रण करते है, सयणे प्रजणे य समो, समो प्रमाणाऽत्रमाणेसु ॥ काय क्लेशादि होने पर भी खेदित नहीं होते, किन्तु विषय- जह मम न पिय दुक्खं जारिणय एमेव सव्वजीवाणं । कषयोंका निग्रह करते हुए इन्द्रियोका दमन करते हैं । वे श्रमण न हणइ न हणावेइय सममणई तेण सो समणो॥ कहलाते हैं अथवा जो बाह्य प्राभ्यान्तर ग्रन्थियों का त्याग
-अनुयोगद्वार १५०