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अनेकान्त
अन्ते उरी रे स्वामीय पूठि मूठिहार करती नीक ली। केए फोडइ रे कंकण भार सार बिलूरह देहडी ॥५॥ एक घोडइ रे नव सर हार पार न पामह रोवती । ए केई कूट ए पेट अपार सार पाखड धरणिइ पडइं। एके बोलइ रे मधुरी बाच साच बहिनि सुणि रडि मन हनइ । लेसिउ रे पापना दीख सीखए सरग मुगतहिं तणी ।। तेह संभली ए वचन अशोकशोक मूकी धरि तउ गई। ततो प्रावी पाए शाति जिनेसर दिशि प्रावां वनि सुरसम ।। सई लेई परे वि उपवास पारि उत्तरदिशि वह सीया । भरी पाचे हे रे मुठि उपाडि वाडिनी माला के रेडी।। सब भूपति रे महस समेत हेत जेस विदूषणतणा । तप छडी रे भूषण वस्त्र शस्त्र कषाय मन शुद्धि करी। १०॥ गाहा-जिठे किण्हे पक्खे प्रवरव्हे भरणिणाम णक्खत्ते ।
उड्डीय सयल परिग्गह जिण दिक्खा सह य मुक्ख वल्लहिय । गसु-उपधि विछंडीय चरण सुमडिय खडिय मोहनउ जाल रे ।।
परम समाधिई रहिय अबाधिई साधीय पातम ध्यान रे ।२। ध्यान अभ्यासीय धाति कर्म नासीय पासीय वनहं मझारि रे।३।
पामीय ज्ञान पर केवल नुत सुर ईसर हऊ उजग देव रे ।। "पुण्य मास चतुर्दशीवरदिने पक्षे सुशक्ले सुधीः, सन्ध्यायां विनहत्य घाति प्रकृतीन संप्राप सत्केवलं ।
लोकालोकपदार्थदीपकमहो मुक्त्यगना वर्पण, छाग्रस्थो न विनीय शांति जिनप. सवत्सरान षोडश" अठीऊ-समोशरण वर सार रचिउ धनद् अपार कनक रयण करि ए वार सभा भरिए ।
अहे मोह मिय्यात विग्वडिय दंडय पाखंडिय जाल । अहे महि मंडलि विहरत करन मुधरम विसाल ।।
अहे समेदाचलि लोधउ कीघउ योग निरोध । अहे काय करम सवि छेदोय भंजीय जिनवर योध ।। गाहा–जिलें ट्ठिीय कम्मो किण्हे पक्वं च उद्दमो दिवसे । संपत्ते परम सह तच्चं सो भरणी नक्खत्ते ॥ अठोक-काल अनत अपार भोग वई शिव सुख सार । पामीय वसु गुण ए रहित सविधि गण ।१० .
देव मवि आवेवि शिव कल्याण करेवि । परम भगति भरी ए तो गय निज घरी ए।। जे गाइ फागि मनि प्राणी अनुराग । तेह घरि निब निधिए संपडइ सिद्धिए ।३। यो देवेन्द्र नरेन्द्रनागपतिभिनित्य स्तुतो वंदितो, हयंततीत गुणार्णवो गुणहरः कामः सुचको जिनः । भुक्त्या दिव्य सुखं नदेव जनितं प्राप्तः सुभत्यंगना, क्रीया सविकयास्तुतः सच मया येनेनयाच्छिवं ।।
इति भट्टारक श्री सकलकीति विरचिते श्री शातिनाथ फाग समाप्ता।
आत्म-निरीक्षण आत्म-निरीक्षण का सकल्प जीवन को समुज्ज्वल और समुन्नत बनाने में प्रबल सहायक है। यह प्रात्मोन्नति का एक अमोघ साधन है। जब अपना दोष स्वय अपने ध्यान मे आ जाता है तब उसे त्यागने में विलम्ब नहीं होता, किन्तु जब प्रात्म-दोष निरीक्षण की दृष्टि परिपक्व हो जाती है तब राग द्वेषादि विकार भावों का परिकर स्वयं दूर होने लगता है। प्रात्मनिरीक्षण के प्रभाव में दूसरों का दोष देखना सुगम है । पर अपनी स्खलित दृष्टि पर नियन्त्रण करना कठिन है । निर्मल दर्पण में चेहरा देखने पर सुन्दरता और प्रसुन्दरता का सहज बोध हो जाता है उसी तरह मात्म निरीक्षण करने से भी पवित्रता-अपवित्रता का सहज ही भान हो जाता है। प्रत. प्रात्म-निरीक्षण प्रात्म-शुद्धि का सुगम उपाय है।