Book Title: Anekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 319
________________ २६० अनेकान्त जीवन में जो कुछ भी अनुभव किया उसे उन्होंने साहि- वांठिया । व्यवस्थापक थी जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महात्यिक रचना द्वारा मानस धरातल तक पहुँचाने का प्रयत्न सभा ३ पोर्चुगीज चर्च स्ट्रीट, कलकत्ता-१ । किया है। मुनि जी अनेक ग्रंथों के लेखक हैं, जहा वे सुधारक हैं वहां वे क्रान्तिकारी विचारक भी हैं। पुस्तक प्रस्तुत शोध-पत्र में हिन्दी अंग्रेजी और बंगला तीन सुन्दर और उपयोगी है । प्रकाशन भी सुन्दर हुआ है। भाषाओं में अन्वेषणात्मक निबन्ध प्रकाशित किये गये है, जो नन् १९६४ के २५ अक्टूबर को बीकानेर में प्राचार्य ४. प्रागम युग का जैन दर्शन-लेखक पण्डित दल तुलसी के सानिध्य मे पढे गये थे। उनमें हिन्दी भाषा के सुख मालवणिया सम्पादक विजयमुनि, प्रकाशक सम्मति १४ निबन्ध उक्त पुस्तक में प्रकाशित है। यों तो सभी ज्ञानपीठ पागरा, पृष्ठ सख्या ३५३ मूल्य ५) रुपया। निबन्ध शोध-परक है। किन्तु ३-४ निबंध बड़े ही महत्त्व पूर्ण है, और वस्तु तत्व पर ठीक प्रकाश डालते है। मुनि प्रस्तुत ग्रथ में प्रागम-ग्रन्थ की रूप-रेखा का विवेचन करते हुए प्रमेय खण्ड मे श्वेताम्बरीय जैन पागम के नथमल और नागराज आदि के निबन्ध जहा शोध परक प्राधार से प्रमेय पदार्थ का विचार किया गया है। प्रमाण हैं, वहा सास्कृतिक वस्तुतत्त्व के भी निदर्शक हैं। मुनि नथमल जी के निबन्ध मे उपनिपदो में श्रमण सस्कृति का खण्ड में ज्ञानों की प्रामाणिकता का परिचय कराया गया प्रभाव परिलक्षित है। लेख सामयिक और उपनिषदो के है । साथ ही उनकी सम्यक् असम्यक् दशा पर भी प्रकाश अध्ययन को प्रेरित करता है। मुनि नगराज जी ने तिरु. डाला गया है । और पागम में निर्दिष्ट प्रामाण्य अप्रामाण्य कुरुल की रचना के सम्बन्ध में प्रो० चक्रवर्ती के विचारो की दृष्टि का भी उल्लेख किया है। वाद-विद्या-खण्ड में को पुष्ट किया है, उससे कुन्दकुन्द के समय की पुष्टि होती प्रागमों मे वाद-विद्या का महत्व ख्यापित करते हुए कथा है। माध्वी सघ मित्रा जी का ध्वनि विज्ञान नाम का के अत्थकहा, धम्मकहा और कम्मकहा और स्थानांगमे लेख भी खोजपूर्ण है । अग्रेजी में मुनि महेन्द्रकुमार जी को वणित धर्म का के भेद-प्रभेदो की चर्चा की गई है। Reality of Soul and Matter नाम का लेख भी अनन्तर पागमोत्तर जनदर्शन का विशद विवेचन किया महत्वपूर्ण है। इस तरह से सभी लेख मननीय है। डा० गया है । अन्त के दो परिशिष्टो में दार्शनिक साहित्य का सत्यरजन वनर्जी का प्राकृत भाषा के सम्बन्ध मे जो शोध विकाम-क्रम और मलयवादि का नयचक्र इन दो विषयों पत्र पढा गया था, वह प्राकृत भाषा साहित्य पर अच्छा के विवेचन भी शामिल कर दिये गये है। प्रकाश डालता है। वह इसमें नही है। सभव है वह प० दलसुख जी से प्रायः सभी जन विद्वान परि. अलग से प्रकाशित हुआ हो। उस लेख के सम्बन्ध चित है, उन्होने प० सुखलाल जी के सानिध्य में रह कर डा० बनर्जी ने परिषद् से लौटने पर मुझे बतजो साहित्य का सम्पादनादि कार्य किया है। वह सर्व लाया था अन्त मे जैन समाज के पयो की सूची भी दी विदित ही है । आपकी यह कृति प्रागम अभ्यासियों के म त शानियों के गई है। प्राचार्य तुलसी द्वारा प्रस्थापित यह परिषद लिए विशेष उपयोगी होगी। इसके लिए लेखक और सास्कृतिक तुलनात्मक अध्ययन की और प्रेरणाप्रद होगी सम्पादक दोनों ही धन्यवाद के पात्र है। पौर भारतीय साहित्य के साथ जैन साहित्य की महत्ता का मूल्यांकन करने में भी सहयोग प्रदान कर सकेगी। ४. जैन दर्शन और संस्कृति परिषद के प्रथम मधिवेशन १९६४ में पठित शोध-पत्र, सयोजक मोहनलाल परमानन्द शास्त्री

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