Book Title: Anekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 335
________________ परश पखाली जियो नीर, क्रीडा कर घर पायो वीर॥ उपजे भ्रम फिरी चितवे भूप, अंतरीक्ष देव रह्या तिहां अनूप। रखनी वि राणी चितवे इस, कोन कारण हुनो जगदीश । पद्मावती ॥१०॥ पपावती.॥५॥ महीमा बढयो महियेल बनो, अंतरिक्ष प्रभू पास सहतनो। प्रातःसमे सुंदरी पूछे तास, क्रीडा करी कवन वनमास। गजकेशरी दावानल सपं, उदधीरोग बधन सर्वाद । भोजनपान कियो किहां ठाम, पासने सह विघ्न विनास, भव भव गरण सरण जिन पास। सिंहासनका कहा कियो विश्वास ॥ पद्मावती० ॥११॥ सर्व वृतान्त पूछे भूपाल, राजाराणी चाले ततकाल । काष्ठासंघे गुण गंभीर, सूरि श्रीमूषण पट्टसुधीर । पद्मावती० ॥६॥ चंद्रकीर्ति नमित नरेश, सेवक लक्ष्मण चरण विशेष ॥ पास जिनेश्वर राखो पास, जोनीसंकट निवारो वास । गाजे थानक जल लियो विश्राम, पद्मावती० ॥१२॥ तखिन राजा पायो ते गाम । भोडे नीर पखाले तास, सकल रोग का हुवा विनास ॥ भट्टारक श्री चहकीर्ति १७वीं सदी में हुए हैं। और ते दिन राजा रह्यो तिने ठाम, किंवा राजनो तिहा विश्राम ॥ उन्होंने इस श्री अतरिक्ष पार्श्वनाथ दि. जैन अतिशय पपावती० ॥७॥ क्षेत्र की वंदना भी की थी। उनके साहित्य में तीन जगह इस क्षेत्र के वंदना का वर्णन पाता है। प्रत. उनके साथप्रातह भूप करे (धरे) सन्यास, जब ये प्रगटे देव कोई पास। साथ रहते उनके शिष्य लक्ष्मण ने यह ऐतिहासिक काव्य तबलगनी येम पनशन देह, सात व्रत हुमा भूपने तेह ॥ रचा होगा, ऐसा लगता है। इस काव्य के अस्तित्व की दिवस सातमें सुपनांतर हयो, राजा मनमें हषित भयो। सूचना प्रो. डा. विद्याधर जी जोहरापुरकर ने ई. सन् पपामती० ॥६॥ १९६० के अगस्त के मराठी सन्मति में दी है। इस क्षेत्र सरकालनो रथ करो पिस्तार, एक दिवसना गोवच्छ सार संबंधी ऐसे अनेक काव्य जगह-जगह अप्रकाशित अवस्था ले जोपि रथ चलायों भार, फिरी मत चितो राजकुमार॥ में है। वे सब प्रकाशित होने चाहिए। उनका मैं यथा तबह पाविस सहज सभाव, मनवांछित पुर तु राज लेजाव । शक्ति संग्रह कर रहा है। क्योंकि उन सबका 'श्री दि. पद्यावती० ॥॥ जैन मंतरिक्ष पार्श्वनाथ अतिशय क्षेत्र' इस तीर्थ परिचय प्रातःसमे कियो सब साज, किताब में पुन प्रकाशन करना है। अतः जहा-जहां भी जोपि रुखब रत (थ) चलामो राज । ऐतिहासिक सामग्री हो वे सब प्रकाशित करे, या हमको मनमां संखा उपजी हेव, न जानु किमु प्रावे देव ॥ सूचित करे। अनेकान्त के ग्राहक बनें 'भनेकान्त' पुराना स्यातिप्राप्त शोष-पत्र है। अनेक विद्वानों और समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों का अभिमत है कि वह निरन्तर प्रकाशित होता रहे। ऐसा तभी हो सकता है जब उसमें घाटा न हो और इसके लिए प्राहक संख्या का बढ़ाना अनिवार्य है। हम विद्वानों, प्रोफेसरों, विद्याषियों, सेठियों, शिक्षा संस्थानों, संस्कृत विद्यालयों, कालेजों और जनभूत की प्रभावना में बहा रखने वालों से निवेदन करते हैं कि 'भनेकान्त' के प्राहक स्वयं बनें और दूसरों को बनायें। और इस तरह बन संस्कृति के प्रचार एवं प्रसार में सहयोग प्रदान करें।

Loading...

Page Navigation
1 ... 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426