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सूत्रधार मण्डन विरचित 'रूपमएडन' में जैन मूर्ति लक्षण
श्री प्रगरचन्द नाहटा
जैन धर्म में मूर्ति पूजा का प्रचार बहुत ही प्राचीन- भगवान ऋषभदेव का निर्वाण कैलाश पर्वत पर हमा काल से चला पा रहा है। जैन आगमों और उनके जिसकी एक-एक योजन की पाठ पेड़िया थी इसलिए उसे ग्याख्या ग्रन्थों तथा जैन कथा ग्रन्थों से तो प्रथम तीर्थकर अष्टापद तीर्थ कहा गया है। वहा भरत ने एक विशाल भगवान ऋषभदेव के समय से ही जैनधर्म में मूर्ति पूजा स्नूप या मन्दिर का निर्माण करवाया था जिसकी मूल का प्रचार सिद्ध होता है । इस मनुप्य लोक मे ही नही वेदिका मे चारों ओर २४ तीर्थकरो की प्रतिमाएं स्थापित देवलोक में भी शाश्वत जैन चैत्य व मूर्तियां है। देवों ने की गई जो कि भगवान महावीर के समय तक विद्यमान अपने स्थान पर उत्पन्न होने के अनन्तर ही अपने वहा के थी। भगवान महावीर के प्रथम पोर प्रधान गणधर जैन चैत्यों और मूर्तियों की विधिवत पूजा की इसका भी इन्द्रभूति गौतम अष्टापद तीर्थ की यात्रा करने पधारे थे विस्तृत विवरण 'राय पसेणी जीवाभिगम' प्रावि प्राचीन और तीन पेड़ियों पर तपस्या करने वाले ५०१-५०१ जैन भागमों में प्राप्त होता है। नंदीश्वर द्वीप आदि में भी मुनियो को जैन धर्म में दीक्षित कर अपना शिष्य बनाया शाश्वत जैन चैत्य एवं मूर्तियां है ही। इस भरत क्षेत्र में था। भगवान महावीर के बाद कैलाश हिम से पाच्छादित भी सर्व प्रथम भगवान ऋषभदेव जब मुनि अवस्था में हो गया भतः हिमालय कहलाने लगा। अष्टापद तीर्थ विचरते हुए अपने शक्तिशाली बाहुबलि की गजधानी उसी बर्फ में विलीन हो गया प्रतीत होता है। तक्षशिला के बाहर पधारे । बाहुबलि को प्रभु का पागमन भगवान महावीर के समय में पूर्ववर्ती जैन तीर्थकरों ज्ञात हुमा पर इस विचार से कि कल प्रातः सेना मोर के स्तूप आदि विद्यमान थे। मथुरा का देव निर्मित नगर-जनो के साथ बड़े धूमधाम से प्रभु-दर्शन करूंगा। मपाच और पार्श्वनाथ का स्तुप तो मध्यकाल में भी
तत्काल ऋषभदेव के दर्शन को न जा सके। दूसरे दिन तीर्थ के रूप में बरत प्रसिद रखा है। मौभाग्य से प्रात: बाहुबलि के बहा पाने से पूर्व ही ऋषभदेव वहाँ से ककाली टीले की खुदाई में उस स्तूप के अवशेष-पायागपट्ट विहार कर गये क्योंकि वे तो सर्वया नि स्नेही थे-वीत- व लेख प्राप्त हो गये है। राग थे।
जन प्रतिमायो मे तीर्थकर प्रतिमाओं का निर्माण तो बाहुबलि को जहा प्रभु ठहरे हुए थे वहाँ जाने पर काफी प्राचीन है पर अन्य देवी-देवतामों की प्रतिमायें कब जब प्रभु के बिहार कर जाने की बात मालूम हुई तो मन से बनने व पूजी जाने लगीं इसका इतिहास अन्वेषणीय है। मे वेदना का पार नहीं रहा। उन्होंने सोचा मैं कितना प्राचीन जैन आगमों में उस समय के अनेक स्थानों के हतभागी हैं कि प्रभु का प्रागमन ज्ञात कर भी तत्काल यक्षायतनों का महत्वपूर्ण उल्लेख मिलता है। जैन प्रतिदर्शनार्थ नहीं पहुँच सका। सेना और जनता के साथ मामो के लक्षण एवं निर्माण सम्बन्धी उल्लेख मध्यकाल आडम्बर से पाने की बात सोचता रहा और प्रभु तो अब के ही प्राप्त होते है। वास्तु-शास्त्र के प्राचीन जैनेतर अघों अन्यत्र जा चुके हैं। अन्त मे उमने जहाँ प्रभु कायोत्सर्ग मे भी जैन प्रतिमानों के लक्षण वणित है। मानसार, में अवस्थित हुए थे वहां उनकी चरण पादुकायें बनवा-कर अपराजित पृच्छा प्रादि जैनेतर अन्य उल्लेखनीय है। स्थापित की मोर उन्ही के दर्शन-पूजन से अपने को जैन वास्तु सार, प्रतिष्ठा कल्प, निर्वाण कलिका, भाचारकृतार्थ किया।
दिनकर मादि अनेक जैन ग्रन्थों में जैन प्रतिमामों के