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दुरपोष और स्यावाद
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अनित्य व अस्थिर स्वीकार करता है जहां यह सत्य है कि के सिद्धान्तों का उल्लेख करता हैजैन दर्शन ने प्रारम्भ से ही इन दोनों कोटियों को आने- १. सम्ब मे खमति। २. सब मे न समति । कान्तवाद का प्राश्रय लेकर कथञ्चित दृष्टिकोण से
३. एकच्चं मे खनति सूच्चं मे न खनति ।। समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न किया है। वहां यह भी सत्य है कि इस प्रयत्न की-सिद्धान्त की-प्रायः सभी
ये तीन भंगिया स्यावाद की प्रथम तीन भंगियों का जैनेतर दार्शनिक व सैद्धान्तिक ग्रन्थों में खूब पालोचना अनुगमन करता की गई है। हम त्रिपिटक को ही ले। भगवान बुद्ध १. स्यादस्ति । २. स्यान्नास्ति । ३. स्यादस्तिनास्ति । सच्चक ३ की मालोचना यह कह कर करते हैं कि तुम्हारा इन भंगिमों को यदि बुद्धघोष ने सूक्ष्म दृष्टि से समपूर्व कथन पश्चात् कथन से विपरीत पड़ता है और झने का प्रयत्न किया होता तो शायद उनसे इतनी बड़ी पश्चात्कथन से पूर्व कथन (न खोते सन्धियति पुरिमेण भूल न होती । स्यावाद निःसन्देह शाश्वतवाद और उच्छेदवा पच्छिम पच्छिमेण वा पुरिमं)४ । स्याद्वाद के विरोध वाद पर विचार करता है, परन्तु "कथचित्" दृष्टिकोण में यह स्वात्मविरोध (Self Chntradiction) शायद से । इस दृष्टिकोण को किसी भी जैनेतर दार्शनिक ने प्राचीनतम होगा।
हृदयंगम नही किया। निग्गण्ठ नातपुत्त और चित्त गहपति के बीच हुए सवाद से भी यही बात ध्वनित होती है। चित्त गहपति
__ 'स्यात्' शब्द के उपयोग के विषय में पालि त्रिपिटक नातपुत्त के कथन पर टिप्पणी करता है कि यदि आपका
में कुछ भी उल्लेख नहीं मिलता। चून राहुलोवादसुत्त में पूर्वकथन सत्य है तो उत्तर-कथन असत्य है और यदि उत्तर
"ते जो धातु सिया अज्झनिका सिया वहिरा" जैसे प्रसगों
में उसका जो उपयोग मिलता है वह बौद्ध दार्शनिक क्षेत्र कथन सत्य है तो पूर्व कथन असत्य है-सचे पुरिमं सच्च, पच्छिमं ते मिच्छा, सचे पच्छिमं सच्च, पुरिमं ते मिच्छा५।
का है। जैनदर्शन में "तिया" शब्द का प्रयोग होता था,
इस विषय मे त्रिपिटक मौन है। इस मौन से "स्याद्वाद" भगवान् सुद्ध और उनके शिष्यो ने वस्तुतः स्याद्वाद
का कुछ अधिक नहीं बिगड़ा। पर पञ्चम शताब्दी, जो को सही ढंग से समझने का प्रयत्न ही नहीं किया । छठवी
जन और बौद्ध दोनों दर्शनो का विकास का महत्वपूर्ण शताब्दी ई० पू० के उस विसंवादिक युग में जहाँ अन्य दार्शनिको ने प्रत्येक वस्तु को ऐकान्तिक दृष्टिकोण से
काल रहा है, मे उत्पन्न हुए बुद्धघोष जैसे प्राचार्य ने यह देखा वही नातपुत्त ने दृप्टवादिता को दूर कर मनो.
भूल कैसे की, यही प्राश्चर्य है। इस समय तक तो कुन्दमालिन्य मिटाने का भरपूपूर प्रयत्न किया और वस्तु
कुन्द, समन्तभद्र, सिद्धसेन दिवाकर जैसे धुरन्धर जैन स्वरूप को अनेकान्तिक दृष्टि से जनता के समक्ष प्रस्तुत
तत्ववेत्तामों का साहित्य बुद्धघोष को सुलभ रहा ही होगा।
फिर भी बुद्धघोष के रिमार्क में गभीरता का अश दिखाई किया। दीघनख परिब्बाजक, जो उच्छेदवाद का समर्थक और सञ्जय के सिद्धान्त का पोषक रहा है६, तीन प्रकार
क्यों नही देता? हो सकता है कि उन्होंने त्रिपिटक की
मान्यता का ही निर्देशन किया हो। यह अनुमान तब ३. सच्चक मूलत. पार्श्वनाथ सम्प्रदाय का अनुयायी था
और भी सत्य बैठता है जब हम बुद्धघोष को ही त्रिपिटकके परन्तु उत्तरवाद मे वह भगवान महावीर द्वारा सुधारे
मात्मा विषयक रूपी प्ररूपी आदि सिद्धान्तोंके बीच "मरूपी गये सम्प्रदाय का भक्त हो गया था।
मात्मा" जैनों का सिद्धान्त है यह कहते हुए पाते है।। ४. मज्झिमनिकाय भाग १, २३२ । ५. संयुत्तनिकाय भाग ४, ८. २६८-६९।
७. मरूप समापत्ति निमित्तं पन प्रत्ता ति समापत्ति सञ्च ६. Dictionary of Pali Proper names-दीधनख च अस्स सजी गहेत्वा वा निगण्ठो प्रादयो पञ्चा
शायद जैन रहा होगा। उसे और दीघतपस्सी को एक येति, विय तक्कमत्तेन एव वा, प्ररूपी धत्ता सञ्जीति माना जाय तो यह मनुमान मौरभी सही हो जाता है। नं."सुमंगल विलासिनी, पृ० ११०।