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अमन संस्कृति के उद्मावक ऋषभदेव
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में-"सप्रलम्ब जटाभार भ्राजिष्णु." रूप से उल्लेखित रही थी, वे निश्चल होकर मौद्गलानी (मुद्गल की किया है। अपभ्रंश भाषा के सुकमाल चरिउ मे भी स्वात्मा वृत्ति) की ओर लोट पड़ी अर्थात् मुद्गल ऋषिकी निम्न रूप से उल्लेख पाया जाता है :
इन्द्रियां जो स्वरूप से पराङ्मुख हो अन्य विषयों का पोर पढम जिणवर वि वि भावेण,
भाग रहीं थी वे उनके योगयुक्त ज्ञानी नेता केशी वृषभ जा-मउ विहूसित विसय विष्ठ मयणारिणासणु।
के धर्मोपदेश को सुनकर अन्तर्मुखी हो गई-अपने स्वरूप अमरासुर-णर-पय-चलणु,
में प्रविष्ट हो गई। सत्ततच्च णवपयत्व व णयहि पयासणु ।
ऋग्वेद के (४, ५८, ३) सूक्त मे-"विधाबद्धो वृष. लोयालोयपयासयह जसु उप्पण्णउ गाणु ।
भो रोरवीति महादेवो मान विवेश" बतलाया गया है, सो पणवेप्पिणु रिसह जिणु अक्षय-सोक्ख-णिहाण। कि दर्शन ज्ञान चरित्र से) मनुबद्ध वृषभ ने घोषणा की और जटा, केश केसर एक ही अर्थ के वाचक है, "जटा
वे एक महान देव के रूप में मत्या में प्रविष्ट हुए। सटा केसरयोः इति मेदिनी।" इस सब कथन पर से उक्त इस तरह वेद और भागवत तथा उपनिषदो में श्रमणों प्रर्थ की पुष्टि होती है।
के तपश्चरणकी महत्ताका जो वर्णन उपलब्ध होता है, वह केशी और ऋषभ एक ही है। ऋग्वेद की एक ऋचा महत्वपूर्ण है । और उसका सम्बन्ध ऋषभदेव की तपश्चर्या मे दोनों का एक साथ उल्लेख हपा है और वह इस से है । श्रमणो ने अपनी आत्म-साधना का जो उत्कृष्टतम प्रकार है :
पादर्श लोक में उपस्थित किया है तथा अहिसा की प्रतिष्ठा ककर्दवे ऋषभो युक्त प्रासी प्रबावचीत सारथिरस्य केशी. द्वारा जो प्रात्म-निर्भयता प्राप्त की, उससे श्रमण संस्कृति दुषर्युक्तस्य द्रवतः सहानस ऋच्छन्ति मा निष्पदो मदग- का गौरव सुरक्षित है। श्रमण-सस्कृति ने जो भारत को लानीम् ॥
अपूर्व देन दी है वह है अहिसा, समता और अपरिग्रह । (ऋग्वेद १०,१०२, ६)
भारतीय संत-परम्परा ने इनके द्वारा ही अपने को यशस्वी
बनाया है। भगवान ऋषभदेव सत-परम्परा एवं श्रमणइस सूक्त की ऋचा की प्रस्तावना में निरुक्त मे मुद
संस्कृति के प्राद्य सस्थापक थे। उनको हुए बहुत काल गलस्य हृता गाव ग्रादि श्लोक उद्धृत किये गये है कि
बीत गया है तो भी उनकी तपश्चर्या का महत्व और मुदगल ऋपि को गायो को चोर चुरा ले गये थे, उन्हे
उनका लोक कल्याणकारी उपदेश भूमडल में अभी वर्तमान लौटाने के लिए ऋपि ने केशी ऋषभ को अपना सारथी
है । वे श्रमण सस्कृति के केवल सस्थापक ही नहीं थे किन्तु बनाया, जिसके वचन मात्र से वे गौए आगे न भाग कर
उन्होंने उसे उज्जीविन और पल्लवित भी किया। और पीछे की भोर लौट पड़ी। इस ऋचा का भाष्य करते हुए
उनके अनुयायी तेईस तीर्थकरो ने भी उसका प्रचार एव मायणाचार्य ने केशी और वृषभ का वाच्यार्थ पृथक् बत
प्रसार किया। उनमें पहिमा की पूर्ण प्रतिष्ठा थी। इसी लाया है, किन्तु प्रकारान्तर से उसे स्वीकृत भी किया है"अथवा, अस्य सारथि: सहायभूनः केशी प्रकृष्ट केशी
से उनके समक्ष जाति-विरोधी जीवो का वर-विरोव भी
शान्त हो जाता था। ऋषि पतजलि ने योग सूत्र में लिम्बा वृषभ अवाबचीत् भ्रशमशब्दयत्" इत्यादि ।
है कि-'अहिंसा प्रतिष्ठाया तत्सन्निधौ वर त्यागः ।' यह मुद्गल ऋषि के सारथी (विद्वान् नेता) केशी वृषभ उक्ति ही नहीं है किन्तु उन्होंने इसे अपने जीवन मे चरिजो शत्रुमों का विनाश करने के लिए नियुक्त थे, उनकी तार्थ किया था। ऋषभदेव का जीवन कितना महान या वाणी निकली, जिसके फलस्वरूप जो मुद्गल ऋषि की और उन्होंने श्रमण सस्कृति के लिए क्या कुछ देन दी इस गौवें (इन्द्रियां) जुते हुए दुर्धर रथ (शरीर) के साथ दौड पर फिर कभी विचार किया जायगा ।