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अग्रवालों का बन संस्कृति में योगदान
२७७ जाता है। पारा का जैन सिद्धान्तभवन तो प्रसिद्ध ही है, (ततीय के प्रामात्य थे। आपने कवि श्रीधर से, जो हरिजनसाहित्य और इतिहास का प्रसिद्ध शोधसस्थान वीर- याना देश से यमुना नदी को पार कर उस समय दिल्ली में सेवा मन्दिर से सभी परिचित हैं। मेरठ, खतौली, मुज- पाये थे । साह नट्टल ने उनसे ग्रंथ बनाने की प्रेरणा की फ्फरनगर और सहारनपुर के शास्त्रभडार भी उपयोगी थी, तब कवि ने उनके अनुरोध से 'पासणाह चरिउ' नामक हैं। प्राज इस लेख द्वारा अग्रवाल जैनों की जैनधर्म और सरस-खण्ड काव्य की अपभ्रंश भाषा मे रचना वि० सं० समाज एवं साहित्य-सेवा का थोड़ा सा दिग्दर्शन मात्र ११८६ अगहन बदी अष्टमी रविवार के दिन समाप्त कराया जाता है जिससे जनसाधारण अग्रवालों के जैन- की थी। धर्म व संस्कृति में योगदान का परिज्ञान कर सके। न का पारज्ञान कर सके।
नट्टल साहू ने उस समय दिल्ली में प्रादिनाथ' का ___संवत् ११८६ से पूर्व साहू नट्टल के पूर्वज पिता वगैरह एक प्रसिद्ध जैन मन्दिर भी बनवाया था, जो अत्यन्त सुन्दर योगिनीपुर (दिल्ली) के निवासी थे। इनकी जाति अग्र- था जैसा कि ग्रन्थ के निम्न वाक्यों से प्रकट है :वाल थी। नट्टल साहु के पिता साह जोजा श्रावकोचित कारावेवि णाहेय हो णिकेउ, पविइण्णु पंचवण्णं सुकेउ । धर्म कर्म मे निष्ठ थे। इनकी माता का नाम 'मेमडिय' पई पण पइट्ठ पविरइयजेम, पासहो चरित्तु पुण वि तेम ।। था, जो शीलरूपी सत् प्राभूषणों से अलकृत थी और बाधव मादिनाथ के इस मन्दिर की उन्होंने प्रतिष्ठा विधि भी जनों को सुख प्रदान करती थी। साह नल के दो ज्येष्ट की थी, उस प्रतिष्ठोत्सव का उल्लेख 'पासणाह चरित्र' की भाई और भी थे राघव और सोढल । इनमे राघव बड़ा ही पांचवी सधि क निम्न सुन्दर और रूपवान् था। उसे देखकर कामनियो का चित्त
येनाराध्यविशुध्यधीरमतिना देवाधिदेवं जिन, द्रवित हो जाता था। और सोढल विद्वानो को आनन्ददायक,
सत्पुण्यं समुपाजितं निजगृणेः सन्तोषिता बान्धवाः । गुरुभक्त तथा परहंत देव की स्तुति करने वाला था, उसका
जैन चैत्यमकारि सुन्दरतर जैनी प्रतिष्ठां तथा, शरीर विनयरूपी पाभूषणो से अलकृत था, तथा बडा बुद्धि
स श्रीमान्विवितः सदैव जयतात्पृथ्वीतले नट्टलः ॥ वान प्ररि धीर-वीर था। साह नट्टल इन सब मे लघ इससे नट्टल साहु की धार्मिक परिणति का सहजही पुण्यात्मा, सुन्दर और जन वल्लभ था। कुनरूपी कमलो का पता चल जाता है। आदिनाथ का उक्त मन्दिर कुतुबप्राकर, पापरूपी पाशु (रज) का नाशक, प्रादिनाथ तीर्थ- मीनार के पास बना हुआ था, बड़ा ही सुन्दर और कलाकर का प्रतिष्ठापक, बन्दीजनो को दान देने वाला, पर पूर्ण था, जहाँ कुव्वतुल इस्लाम मस्जिद बनी हुई है, जिसे दोषों के प्रकाशन से विरक्त, रत्नत्रय से विभूपित और २७ हिन्दू मन्दिरो को तोडकर बनाने को कहा गया है।
संव को दान देने मे सदा तत्पर रहता था। उस उसे ठीक रूप से निरीक्षण करने पर जैन सस्कृति के चिन्ह समय दिल्ली के जैनियो मे वह प्रमुख था. व्यसनाधिन बहतायित से मिलते है। नीचे प्रवेश स्थान के दाहिनी मोर रहित हो श्रावक के व्रतो का अनुष्ठान करता था। साहू
एक स्तम्भ पर तीन दिगम्बर जैन मूतिया कित हैं । उक्त नट्टल केवल धर्मात्मा ही नहीं थे किन्तु उच्चकोटि के व्या
मस्जिद के ऊपरी भागमे दोनों ओर छतके ऊपर जो गुमटी पारी भी थे । उन्होने व्यापार में अच्छा प्रर्थ सचय किया
बनी हुई है। उनमे ऊपर छत के चारों किनारो के पत्थरो था और उसे दान धर्मादि कार्यों में सदा व्यय करते रहते
पर जैन मूर्तियां अकित हैं। बीच में पद्मासन और प्रगलथे। उस समय उनका व्यापार प्रग, बग, कलिंग, कर्नाटक,
बगल मे दो खडगासन मूर्तिया उत्कीर्ण है। उनके दोनो नेपाल, भोट पाचाल, चेदि, गौड, ठक्क, (पजाब) केरल,
किनारों पर हाथी घोडा प्रादि परिकर उत्कीर्ण है और मरहट, भादानक मगध र मोर या चारो कोनो पर चार मीन युगल भी बने हुए है। जो दाईदेशों और नगरों में चल रहा था। यह व्यापारी ही नही १ सणवासि एयारह सहि, परिवाडिए वरिसह परिगएहि । थे, किन्तु राजनीति के चतुर पंडित भी थे। कुटुम्बीजन तो कसणट्ठमीहि मागहणमासि, रविवारि समाणिउ सिसिरभासि । नगर सेठ थे और पाप स्वयं तोमरवशी राजा प्रनगपाल
-पासणाह चरिउ प्रशस्ति सं० पृ०४८