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अनेकान्त
पंच समिवो तिगतो पंचेविय सबडो जिद कवायो। 'वातरशना' मुनि का उल्लेख किया गया है, वह उक्त बंसण-णाण-समग्गो समणो सो संजयो भणियो। (३-४२) संस्कृति के संस्थापक ऋषभदेव के लिए किया गया है।
ऊपर जिन श्रमणों का स्वरूप दिया गया है वे ही मुनयो वातरशनाः पिशंगा बसते मला। सच्चे थमण हैं । अनुयोगद्वार में श्रमण पांच प्रकारके बत- वातस्यानुध्राजि यान्ति यद्देवासो अविक्षत ॥ लाये गये हैं । निर्गन्य, शाक्य, तापस, गेरुय और पाजीवक
उन्मादिता मौनेयेन वातां प्रातस्थिमा वयम् । इनमें अन्तर्बाह्य प्रन्थियों को दूर करने वाले विषयाशा से शरीरेस्माकं यूय मासो अभि पश्यथ । रहिन, जिन शासन के अनुयायी मुनि निर्गन्थ कहलाते हैं ।
(ऋग्वेद १०, १३६, २-३) सुगत (बुद्ध) के शिष्य सुगत या शाक्य कहे जाते हैं । जो
अतीन्द्रियार्थ-दर्शी वातरशना मुनि मल धारण करते जटा धारी हैं, वन में निवास करते हैं, वे तापसी है।
हैं, जिससे वे पिंगल वर्ण दिखाई देते हैं, जब वे वायु की रक्तादि वस्त्रों के धारक दण्डी लोग कहलाते है। जो
गति को प्राणोपासना द्वारा धारण कर लेते हैं-रोक लेते गोशालक के मत का अनुसरण करते है वे प्राजीवक कहे
हैं-तब वे अपनी तप की महिमा से दोप्यमान होकर जाते हैं। इन श्रमणों में निर्ग्रन्थ श्रमणोका दर्जा सबसे ऊचा
देवता रूप को प्राप्त हो जाते हैं। सर्व लौकिक व्यवहार है, उनका त्याग और तपस्या भी कटोर होती है वे ज्ञान
को छोड़कर हम मौनवृत्ति से उन्मत्तवत् (उत्कृष्ट प्रानन्द और विवेक का अनुसरण करते हैं। ऐसे सच्चे श्रमण ही श्रमण संस्कृति के प्रतीक हैं । इस श्रमण संस्कृति के प्राद्य
सहित) वायु भाव को (अशरीरी ध्यान वृत्ति को) प्राप्त प्रतिष्ठापक प्रादि ब्रह्मा ऋपभदेव है जो नाभि और मरुदेवी होते है, और तुम साधारण मनुष्य हमारे बाह्य शरीरमात्र के पुत्र थे मौर जिनके शतपुत्रों मे ज्येष्ठ पुत्र भरत के नाम से
को देख पाते हो, हमारे सच्चे प्राभ्यतर स्वरूप को नही, इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा है।
ऐसा वे वातरसना मुनि प्रकट करते हैं। श्रमण शब्द का उल्लेख जैन साहित्य के अतिरिक्त ऋग्वेद की उक्त ऋचाओं के साथ 'केशी' की स्तुति वैदिक और बौद्ध साहित्य मे हुआ है। ऋग्वेद मे जिस की गई है । केशी का अर्थ केश वाला जटाधारी होता, १--निग्गंथ सक्क तावस गेरू प्राजीत्र पंचहा समणा।
सिह भी अपनी केशर (मायाल) के कारण केशरी कहतम्मिय निग्गंथा ते जे जिणसासण भवा मुणिणो ।।
लाता है। ऋग्वेद के केशी और वातरशना मुनि और सक्काय सुगम सिस्सा जे जडिला तेउ तावसा गीया।
भागवत पुराण के उल्लिखित 'वातरशना श्रमण' एव उनके जे गोसाल गमयमणु जे धाड रत्तवत्था तिदंडिण्णो
अधिनायक ऋषभ की साधनाओं की तुलना दृष्टव्य है। गेल्या तेण ॥
दोनों एक ही सम्प्रदाय के वाचक है जन कला में ऋपभ
देव की अनेक प्राचीन मूर्तियां जटाधारी मिलती हैं। सरंति भन्नति ते उ प्राजीवा-अनुयोगद्वार अ० १५०
तिलोयपणरणत्ती में लिखा है-'उस गंगा कूट के ऊपर जटा २-नाभे: पुनश्च ऋपभः ऋषभाद् भरतोऽभवत् ।
रूप मुकुट से मुशोभित आदि जिनेन्द्र की प्रतिमाएं हैं। उन तस्य नाम्न. त्विदं वर्ष भारत चेति कोयते ॥
प्रतिमानो का मानो अभिषेक करने के लिए ही गंगा उन -विष्णु पुराण अ० १
प्रतिमानों के कार अवतीर्ण हुई है। जैसा कि निम्न गाथा अग्नीध्र सूनोनाभेस्तु ऋषभोऽभूत सुतो द्विजः।
से प्रकट है :ऋपभाद् भरतो जज्ञे वीरः पुत्र शताद्वरः ।। ३६, मार्कण्डेय पुराण अ० ५.
मावि जिणपडिमानो तानो, जडमउड सेहरिल्लायो। येषा खलु महायोगी भरतो ज्येष्ठ श्रेष्ठ गुण पासीत।
पडिमोवरिम्म गंगा अभिसितमणा वसा पडदि।
पा येनेद वर्ष भारतमिति व्यपदिशन्ति ॥
रविषेणके पद्मचरित (३-२८८) में "वातोदृता जटाभागवत ५-६ स्तस्य रेजुरा कुलमूर्तयः।" और 'हरिवंशपुराण' (९-२०४)