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करे । असमय में घूमने वाले मुनि के चारित्र मे असमाधि असमाधि तथा प्रात्म-हनन होता है। वर्तमान मनोविज्ञान पैदा होती है। एक बार एक मुनि अकाल में भिक्षा लाने का सिद्धान्त यह है कि हम चेतन मन की सहायता से गया। वह बहुत घरों में घूमा किन्तु भिक्षा नहीं मिली। समय के पाबन्द नही हो सकते ; क्योंकि हमारी प्रव्यक्त वापिस जा रहा था। रास्ते में काल चारी मुनि मिला। चेतना शक्ति (प्रवचेतनमन) जैसा करवाती है, वैसा हम उसने पूछा-खाली कैसे ? भिक्षा नही मिली इधर? करते हैं । ९९ प्रतिशत कार्य इसी अव्यक्त प्रेरणा से होते उसने घृणा के स्वर में कहा-यहा भिक्षा क्या मिले? हैं। अपेक्षा है-विभिन्न सुझावो तथा स्वतः सूचना विधि यह तो भिखारियों का गाव है। इस प्रकाल चारी मूनि बहुन वार जिस समय हम उठना चाहते है, उस समय की उक्ति और अमन्तोषभरी वाणी को सुनकर वह बोला उठ नहीं सकते, क्या इसके पीछे हमारे अन्तर की कोई मुने! अपनी गल्ती से औरों को बुरा भला कहना पाप है मजबूरी नहीं बोल रही है ? मेरे विचारो के अनुसार गल्ती तुम्हारी है। मुनि ने इस प्रमग में एक शिक्षा पद महान् साधना के लिए समय का अनुशासन हमे स्वीकार भी कहा
होता है क्योंकि समय की नियामकता में हम साधना के अकाले चरसि भिक्खू काल न पडिलेहसि । बन्द द्वारो को खोल सकते है। अकाल मे ज्ञान दर्शन और अप्पाणं च किलोमेसि सन्निवेस च गरहसि ॥
चारित्र का अभ्यास करना निपिद्ध है किसी जिज्ञासु मुनि भिक्षा के समय (गृहस्थ याद करे) तुम घरों मे जाया
ने गुरु से पूछा-भन्ते ! यदि ज्ञान मोक्ष प्राप्ति म सहाकरो। तुम्हारा भी कार्य होगा और गृही वर्ग को भा
यक हो तो उमको आराधना में प्रतिबन्ध क्यो ? गुरुतुम्हे नही मिलने में होने वाला कोश नही होगा। प्राचान
शिष्य ! देह धारण के लिए ग्राहार आवश्यक है, और जैन व्याख्या ग्रन्थों में इस बात पर विशेष बल दिया है
मोक्ष प्राप्ति के लिए देह-धारण पावश्यक है। किन्तु माहार कि मुनि ऐमे ग्रामो और नगरों में न रहें जहा कि स्थडिन कालए अकाल चाग बनना भगवान् ने अप्रशस्त बताया भूमि और भिक्षा के पर अधिक दूर हो । ऐसा होने से
माननी है। बिहार चर्या मुनि के लिए विहिन है किन्तु वर्षावास मे "पडिम पोरिपिज्झाय' इसमे बाचा पाती है। तास्पो चलना निषिद्ध है। ऋतु बद्ध चर्या-प्रशस्त है, मुनि दिन में मुनि के लिए पारणक काल में इतनी दूर जाने और स्थान चले, किन्तु केवल तीसरे पहर म। प्रथम दो प्रहरपर भोजन लाकर खाने में बड़ो कठिनाई होती है। स्वाध्याय, ध्यान के लिए है, तथा अन्य पात्मिक विशिष्ट प्रत काल का निर्णय माधना में सबसे प्रथम करना क्रियामो के लिए। प्रथम पहर की उपयोगिता तो प्राज चाहिए। विक्षिप्त मानस नियन्त्रण नहीं चाहता। इस भी प्रतीत होती है। पता नही प्रथम प्रहर में विहार लिए कभी-कभी मन और इन्द्रियों में अधिक जकडन हो करन का यह परम्परा किम जैन मनीषी ने किस महान जानी है किन्तु जिस साधक का लक्ष्य स्वय को पाना है उद्देश्य के लिए प्रारम्भ की जिमके कुछ कट परिणाम वहा अवश्य इस प्राचीरको तोड़कर अन्दर घुमना चाहेगा। हम भा भुगतन पड़ रह है। याद उस समय तक ध्यान भेद, विज्ञान, प्रात्मबोध तथा सम्भाव, ममय की उपज
परम्परा सुव्यवस्थित ढंग से चालू होती तो सा नह तो नहीं किन्तु समय के निमित्त को पाकर फलने वाली होता । संभव है कि यह विधि जिन कल्पिक मुनियों व साधना है । तत्त्वतः सकल्प नहीं फलता, फलती साधना
लिए ही विहित हो, परन्तु इसका स्पर्श दूसरी परम्परा
मर्वथा नहीं था, ऐमा नही जचता। प्राचीन उग्र विहा है। लम्बे समय तक अपने कर्म सकल्पो को दोहराते रहना
की मर्यादा मीलों और कोमो पर नही थी। उग्र विहा ही साधना है। शास्त्रों मे अमुक क्रिया को अमुक समय
का अर्थ था-सयम और तप से स्वयं को विशेष भावि' पर ही करने का विधान है। क्रिया-व्यत्यय मे प्रबोधि
करते रहना । विहार चर्या का नाम ही उग्र विहार था १. यह कथन श्वेताम्बर परम्परा से सम्बन्ध रखता है। वर्तमान मुनियो की सहनन दुर्बलता, भिक्षा सुलभता तर
-सम्पादक लम्बे विहारो की परम्परा से इतना महान् परिवर्तन हु
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