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प्रनेकान्त
alate तीर्थकरों को पृथक् पृथक् पहचानने के मम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि प्रादिनाथ व पार्श्व नाथ को छोड़कर अन्य तीर्थंकरों के परिचित चिह्न गुप्त काल तक की मूर्तियों में प्रायः नहीं मिलते। श्रादिनाथ की मूर्तियों में बन्धे तक लटकती जा व पार्श्वनाथ को air से प्राच्छादित करने की परम्परा प्रारम्भ से चली भाती है। शेष २२ जिनों के बारे में पीठ पर उत्कीर्ण प्रभिलेख मे दिए नाम से ही पता चलाना संभव है । लगभग ७वी शती के उपरान्त सभी तीर्थकरों के लिए निश्चित वाहन स्वीकृत कर लिए गए उनके साथ बनी यक्ष, यक्षिणी व वाहनों की प्राकृति से भी तीर्थकरो को पहचानने की समस्या का समाधान हो गया ।
कुराणकालीन जैन मूर्तियों की मुख्य विशेषता यह है कि वे निमित है और उनके लेखों मे तत्कालीन समाज धर्म व शासन व्यवस्था पर अच्छा प्रकाश पड़ता है । मरस्वती की मूर्ति के बारे मे अभी लिखा जा चुका है। लखनऊ संग्रहालय में ही एक अन्य मूर्ति है (जे० २०) जिस पर जिरग्न के साथ एक उपासिकाएं उत्कीर्ण है। उनके हाथ में कमल पुष्प है। स्त्रियो का वस्त्र परिधान आज के उल्टे पल्लू की साडी से मिलता है । पीठ पर उन्ही से पता चलता है कि इस मूर्ति को मुनि सुव्रत की आराधना में मथुरा के बौद्ध नामक एक देव निर्मित स्तूप में स्थापित किया गया। डा०वि० [frre ने इसका अच्छा विवेचन दिया है (जैन स्तूप पृ० १३) उनके अनुसार द्वितीय शती में जबकि इस मूर्ति को बौद्ध स्तूप मे प्रतिष्ठित किया गया उस समय तक यह स्तूप इतना प्राचीन हो चुका था कि लोग इसकी ऐतिहासिकता भूल चुके थे और इसे देव-निर्मित स्तूप कहा जाने लगा था । प्राय जिन पुरानी इमारतो के बारे में कोई जानकारी नहीं होती उन्हें भूतो का या देवतायो का बनाया हुपा कहने लगते है। साथ ही व्हूलर को मिली चौदहवी शताब्दी की जिनप्रभ को तीर्थ कल्प से या 'राज प्रसाद'
नामक पुस्तक में वर्णित 'देव निर्मित स्तूप' के विषय में भी विचार करना होगा। तदनुसार यह स्तूप प्रारम्भ में सोने का बना था और बहुमूल्य प्रस्तरों से जड़ित था । इसका निर्माण सातवें तीर्थकर सुपार्श्वनाथ को पूजा के निमित्त कुबेरा नामक देवी ने धर्म तथा धर्मपोष नामक दो मुनियों के आदेश पर कराया । २३वे तीर्थकर पार्श्वनाथ के समय सुवर्ण स्तूप को ईंटो से ढक दिया गया और बाहर पत्थर का एक मन्दिर बनवा दिया। कालास्तर में भगवान् महावीर के कैवल्य प्राप्ति के १३०० वर्ष बाद बप्प भट्टसूरि ने पार्श्वनाथ की आराधना मे इस स्तूप का जीर्णोद्धार कराया ।
अब यदि इन सभी घटनाओं की संगत बैठाई जाय तो हमे मथुरा के देव निर्मित स्तूप की प्राचीनता का सहज अनुमान लग जायगा। महावीर जी का निर्माण सन् ५२७ ई० पू० में माना जाता है। कैवल्य प्राप्ति लगभग ५५० ई० ई० पू० में हुई। स्तूप के जीर्णोद्वार का समय १३०० वर्ष बाद ७५० ई० मे पड़ता है। ईटो का स्तूप यदि पार्श्वनाथ के समय बना माना जाय तो ८०० ई० पू० के लगभग निश्चित होता है। डा० स्मिथ इसे ६०० ई० पू० में मानते है किन्तु पार्श्वनाथ के जीवन काल मे मानने पर तो ८०० ई० पू० ही मानना अधिक उपयुक्त होगा (एज माफ इम्पीरियन यूनिटी पृ० ४११ ईटो से पहले सुवर्ण स्नूप का समय तो कुछ और भी प्राचीन मानना होगा । यदि सुवर्ण स्तूप को छोड़ भी दे तो वी वी शती ई० पू० का मथुरा का देव निर्मित स्तूप जैन धर्म की ही नहीं अपितु हड़प्पा संस्कृति के बाद की भारतवर्ष की प्राचीनतम इमारत मानी जायगी ।
इसी प्रकार अन्य बहुत-सी मैन मूर्तियां जो इतिहास तथा कला की दृष्टि से बडी महत्वपूर्ण है अधिकतर राज्य संग्रहालय, लखनऊ व पुरातत्व संग्रहालय मथुरा मे सग्रहीत है ।