________________
१५२
अनेकान्त
कुछ बातों का साम्य उत्तरपुराण से है तो कुछ का का प्रयोग होता है। इसका प्रधान लक्ष्य है कठिनतम हरिवंश से।
विषयों का सार लेकर सरलतम सरस शब्दों में मानवमात्र प्रस्तुत महाकाव्य में चन्द्रप्रभ के पांच कल्याणकों में को उसके हित की शिक्षा देना। इसी दृष्टि से वीरनन्दी से केवल जन्म और मोक्ष-इन दो की तिथियां दी गई ने प्रस्तुत ग्रन्थ का निर्माण किया। इसमें चन्द्रप्रभ के किया कि पिछले ६ भवों का व १ वर्तमान भव का वर्णन किया है। गई है जो दोनों पुराणों के अनुरूप है, पर मोक्ष कल्याणक
इससे पाठक की दृष्टि के सामने चन्द्रप्रभ के उत्तरोत्तर की मिति भाद्रपद शुक्ला सप्तमी दी गई है जो केवल बढ़ते उत्कर्ष का चित्र मा जाता है, जो वह प्रेरणा देता हरिवंश के ही अनुकूल है। उत्तरपुराण मे फाल्गुन हाक
पास है कि जो भी अपना उत्कर्ष चाहें चन्द्रप्रभ जैसे मार्ग को शुक्ला सप्तमी दी गई है। चन्द्रप्रभ के समवसरण में अपनाये । काव्यकार को चारों पुरुषार्थों की शिक्षा देनी विक्रिया ऋद्धि धारियों की संख्या चौदह हजार बतलाई चाहिए जैसाकि अलङ्कार शास्त्र का निर्देश है। प्रस्तुत गई है। यह उत्तरपुराण के अनुरूप है। हरिवंश मे दस ग्रन्थ में मोक्ष पुरुषार्थ की भी शिक्षा दी गई है और अन्तिम हजार चार मो लिखी है। इत्यादि अनेक ऐसे प्रसंग हैं सगं मे मानव के लिए प्राचार संहिता भी दे दी गई है। जो यह कहते हैं कि वीरनन्दी ने उत्तरपुराण के साथ काव्य को प्रात्मा रस है। प्रस्तुत काव्य में शान्तरस की हरिवंश आदि अनेक पुराण ग्रंथों का प्रश्रय लेकर अपने धारा प्रवाहित है । जैनेतर काव्यों में जिसे नायक बनाया महाकाव्य की रचना की । लगता है इसीलिए वीरनन्दी ने जाता है उसके जन्म-जन्मान्तरों का वर्णन नही रहता, किसी पुराण विशेष का नाम न लेकर 'पुराण सागरे'१ बहुत हुआ तो उसकी कुछ पीढियों का वर्णन कर दिया यह पुराण सामान्य का उल्लेख करना उचित समझा। जाता है। कुछ ऐसे भी काव्य है जिनमें पृङ्गाररस की विशेषता
बाढ मे उनकी अन्यान्य अच्छी शिक्षाएँ घास-फूस की
झोंपडियाँ बनकर बह गई। यों चन्द्रप्रभचरित में भी जिसमें मानवोचित हित निहित हो वह शास्त्र कह
शृङ्गाररस है, पर वह अङ्गी नहीं. अङ्ग (गौण) है। लाता है। काव्य के साथ भी शास्त्र शब्द (काव्य शास्त्र)
इत्यादि विशेषतानों की दृष्टि से वीरनन्दी अपने काव्य १. तथापि तस्मिन गुरुसेतुवाहिते
के निर्माण में अधिक सफल हुए है । इनका चन्द्रप्रभसुदुष्प्रवेशेऽपि पुराणसागरे ।
चरित उच्चकोटि का काव्य है। यह रघुवंशजैसा यथात्मशक्ति प्रयतोऽस्मि पोतक.
सरल है। इति ★ पथीव यूथाधिपतिप्रवर्तिते ॥च.च०१॥१०॥
पर पदार्थ हमें इसके लिए बाध्य नहीं करते कि हममें निजत्व की कल्पना करो, कि तु हम स्वयं अपने राग-केमावेश में प्राकर उनमें निजत्व और परत्व की कल्पना करते हैं। वह भी नियमित रूप से नहीं। देखा यह गया है कि जिसे निज मान रहे हैं, वही जहां हमारे अभिप्राय के विद्यमा , हम उसे पर जान त्याग करने की इच्छा करते हैं और जो पर है यदि वह हमारे अनुकूल हो गया तो शीघ्र ही उसे ग्रहण करने की इच्छा करते हैं।
अभ्यन्तर मोह की परिणति इतनी प्रबल है कि इसके प्रभाव में पाकर जरा भी रागांश को त्यागना कठिन है। अधिक से अधिक त्याग के बल बाह्य रूपादि विषयों का प्रत्येक मनुष्य कर सकता है किन्तु प्रान्तरिक करना अति कठिन है।
वरों-वारणो