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अनेकान्त
बालरूप तेजस्विता का निदर्शन है। इससे सिद्ध है कि किन्तु यह 'काम' कामवासना का नहीं अपितु विरह का उस पर श्रीमद्भागवत का प्रभाव नहीं था। जैन काव्यों पर्यायवाची है। चण्डादास और विद्यापति की राधा की में बाल-रस से सम्बन्धित गर्भ और जन्मोत्सवों की अपनी भांति सूर की राधा न मुखरा है और न विकासोन्मुखा। शैली है। वह उन्हें परम्परा से मिली है। इन उत्सवों के शालीनता मे खिची-सी, खोई-खोई सी राधा नेमीश्वर जैसे चित्र जैन काव्यों में उपलब्ध होते हैं, सूरसागर मे की भावी पत्नी राजुल की समवाची है। दोनो के भावो नहीं। सरदास जन्मोत्सवों के एक-दो पदो के बाद ही का साम्य इ-बहू है । यह कहाँ से मिला? खोज का विषय मागे बढ़ गये। किन्तु साथ ही यह भी सच है कि सूरदास है। विवाह-मण्डप तक माकर बिना विवाह किये ही ने अपनी बन्द प्रांखों से बालक कृष्ण की नाना मनो• नेमीश्वर पशुत्रों की पुकार से द्रवित होकर दीक्षा ले दशामों का जैसा भाव-विभोर निरूपण किया, जैन कवि गिरनार पर चले गये। विवाह-मण्डप में बैठी राजुल ने नहीं कर सके। दोनों पर अपनी-अपनी परम्पराओं का यह सुना तो उसकी असह्य वेदना हृदय की शत-शत प्रभाव था। एक दूसरे से प्रभावित नहीं थे। अतः डा० अश्रुधारामों मे विगलित हो उठी। कृष्ण भी राधा को रामसिंह तोमर का यह कथन कि 'हिन्दी का सभी काव्य- बिना कहे ही मथुरा चले गये फिर लौटे नहीं। दोनों मे पद्धतियों का स्पष्ट स्वरूप हमें जैन कवियो से प्राप्त हुआ अद्भुत माम्य है। सूर के भ्रमरगीत और विनोदीलाल है," ठीक नहीं है।
तथा लक्ष्मीबल्लभ के 'बारहमासो' मे तुलना का पर्याप्त सूरदास ने दाम्पत्यमूला भक्ति मे कृष्ण की किशोरा- क्षेत्र है। किन्तु जहाँ कभी-कभी भ्रमरगीत निगुण के वस्था पर लिखा, और जम कर लिखा। इसम गोचारण, खडन मे दत्तचित्त-सा दिखाई देता है, वहा जैन विरह
जाते है। इसे काव्य नितात काव्य की सामा तक ही सीमित है। उसमें शृङ्गार का सयोग पक्ष कहा जा सकता है। सूरसागर म
खण्डन-मण्डन जैसी बात नही है । गोपियो के पैने तर्कों ने उसके एक-से-एक अनुपम दृश्य अंकित हैं। जैन काव्यो ऊधो जैसे दार्शनिक को निरुत्तर कर दिया। काव्य र का सयोग पक्ष 'विवाह' के सन्दर्भ में सन्निहित है । वर-वधू यह तक प्रवणता कही-कही रसाभास उत्पन्न करती है।
जैन काव्य उससे बचे रहे। जैन कवि राजल, सीता और का सौन्दर्य, उसकी साज-सज्जा और श्रौत्सुक्य सयोग के
अञ्जना के विरह गीतो तक ही सीमित नहीं रहे, उनका मुख्य पहलू हैं । यहाँ जैन कवियों के चित्र सजीव है
'गुरु-विरह' एक मौलिक तत्त्व है। गुरु के विरह म शिष्य देश काल की सीमा से परे। राजशेखर सूरि की राजुल
की बेचैनी राजुल से कम नहीं। दूसरी ओर जैन कवियो पौर हेम विजय के नेमीश्वर-जैसे चित्र पाज भी मानस
ने सुमति को राधा कहा और परमात्मा के विरह में के समक्ष प्रस्तुत हो जाते है। इनके अतिरिक्त जैन
उसकी बेचैनी हिन्दी काव्य को नयी देन है। इन सन्दर्भो कवियों के 'प्राध्यात्मिक विवाह' और 'होलियों से मम्ब
मे प्रकृति-निरूपण भी स्वाभाविक है। मित पद उनके अपने हैं। उन्हें यह परम्परा अपभ्रंश काव्यों से प्राप्त हुई। ये काव्य शक्ति के निदर्शन तो हैं
सूरदास की भक्ति राखाभाव की भक्ति मानी जाती ही, भाव प्रवणता भी स्वाभाविक है। रूपको के माध्यम
है। सखा भाव के कारण ही मूर मे प्रोजस्विता है। भैया से इनमें भाव और कला दोनो का ही उत्तम रूप उपलब्ध भगवती दास के 'ब्रह्म विलास' में भी प्रोज ही प्रमुख है। होता है।
यह चेतन इस प्रात्मा को अपना सखा मानता है, जिसमें सुर का भ्रमरगीत विरह गीत है। कृष्ण के विरह मे परमात्म-शक्ति मौजूद है, किन्तु जो अपने रूप को न गोपियों की वेदना । भक्ति के परिप्रेक्ष्य मे यह विरह पहचान कर इधर-उधर बहक गया है। एक सच्चे मित्र जितना पावन है उतना ही सुन्दर । यहाँ भगवविरह की की भांति यह जीव उसे मीठी फटकार लगाता है। जैन भोट में विलासिता को यत्किचित् भी प्रश्रय नही मिला। कवियों का पद-काव्य इस प्रवृत्ति से प्रोत-प्रोत है। सर से यद्यपि सूर की गोपियों को काम ने लुज बना दिया है, अद्भुत साम्य है । सूर का भोज उनके मीठे उपालम्भों मे