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खजुराहो का घंटा मन्दिर
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उलझ रही हैं। कारनिस में अत्यन्त मनोहर नक्काशी है। मण्डप ही सुन्दरतम प्रतीत होते हैं जिनके मध्य में श्रेष्ठ लघुकाय दृश्यावलियाँ रोमाञ्चकारी चेतना प्रदान करती अलंकरणों के साथ, एक पूर्ण विकसित पन का मंकन है। उनसे प्रकृति की सशक्त गति का बोध होता है। यदि होता है। पद्म के चारों ओर का ढाल साधारण दृष्टि में इन स्तम्भों की संख्या कुछ अधिक होती तो श्री फर्गुसन नही पाता प्रत. उस पन का उभार और भी स्पष्टतर के अनुसार उनकी पृथक् शैली मानी जा सकती थी१७। हो उठता है। वहाँ अलंकरण के नाम पर, अतिरिक्त अंश मौर्य युग से मध्य युग तक उत्तरोत्तर विकाश करती हुई को कोर कर ही काम नहीं चलाया गया बल्कि उसे काट स्तम्भों की परम्परा मे कही भी, घण्टइ मन्दिर के स्तम्भों कर ही अलग कर दिया गया है जिससे उसमें भन्यता का की उपमा नहीं मिलती । उड़ीसा के स्थापत्य में तो स्तम्भों संचार हो पडता है। यह विशेषता घण्टइ मन्दिर में तो का कोई महत्त्व ही नही है। दूसरी विशेषता यह है कि नही ही है, खजुराहो के प्रायः सभी मन्दिरो मे नहीं है२० । मधमण्डप और यहाँ तक कि महामण्डप को भी प्राधार इस छत की, बल्कि खजुराहो के सभी मन्दिरो की छत की देने के लिए स्तम्भो का उपयोग सर्वप्रथम खजुराहो१८ में
समानता हम आबू के जैन मन्दिरों की छत में पाते हैं । ही किया गया है १६ ।
देवगढ के कुछ मन्दिरों में छत की इस शैली के प्रारम्भिक विद्यमान स्तम्भों की चौकियां अष्टकोण और शीर्ष चिह्न दीख पडते हैं। यह भी सभव है कि खजुराहो के गोलाकार है । ये बलुवा पत्थर के बनाये गये हैं क्योकि स्थपति ने माबू के या राजपूताना के ही अन्य जैन मन्दिरों इन पर मण्डप का साधारण भार ही रहना था । प्रवेश से ही यह शैली ग्रहण की हो । पर यह कहना तो नितान्त द्वार के दोनों ओर के स्तम्भ दीवाल मे चिन दिये गये हैं। भ्रम होगा कि छत का यह प्रादर्श ग्रनाडा और कोरदोवा अर्धमण्डप के चारों स्तम्भों मे उच्चकोटि का प्रतीकात्मक के इस्लामी स्मारकों से लिया गया है, क्योकि जिनके अलंकरण है। इन स्तम्भो और महामण्डप के उत्तर- माध्यम से उक्त प्रादर्श की खजुराहो तक पहुँचने की दक्षिणी-स्तम्भ में काफी समानता है। अनेक स्तम्भों की सम्भावना थी उन मुस्लिम शासको का प्रथम प्रागमन चौकियों को अलंकृत करनेवाली पत्रकार रचना विशेष यहाँ परमदिदेव (११६५-१२०२) के शामनकाल में हमा रूप से दर्शनीय बन पड़ी है। प्रथम दो स्तम्भों के शीर्ष था जब यहाँ के सभी मन्दिर बन चुके थे२१ । निश्चय ही विशेष प्रकार के बनाये गये थे कि उनपर पूर्व अर्धमण्डप की छत भी जो अब टूट गई है, अपेक्षाकृत से पानेवाली बडेरे रखी जा सके; क्योंकि मेहराब का सुन्दर नहीं बन सकी है क्योकि यहाँ भी उसी प्रकार कोर अलंकरण वहाँ पहुँचते ही सहसा रुक जाता है और वहाँ कर ही काम चलाया गया है। अलकरणों के प्रतीक महासिर्फ उतना ही स्थान छोड दिया जाता है जितना बडेर मण्डप के समान है जिनके चारों कोणो पर सपज्जित को रखने के लिए आवश्यक होता है।
विभिन्न प्राकारों के तोरण निर्मित हैं । खजुराहो के अन्य __मन्दिर के चतुष्कोण कक्ष की छत में अत्यन्त सूक्ष्म
मन्दिरों की भांति यहाँ भी नृत्य-संगीत की मण्डलियां और भव्य अलकरण है। इसके बहिर्भाग को सुन्दरतम
बहुत हैं। किन्तु यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि यहाँ बनाने मे कलाकार को पूर्ण सफलता मिली है। परन्तु
कोई भी प्राकृति मैथुन-मुद्रा में नहीं है। अनेकों संयोजहाँ तक मण्डप के अन्तर्भाग का प्रश्न है, चालुक्य बोली के
जनाओं से छत मे एकरूपता पा गयी है। छत की सन्धियों
में उभरी हुई नक्काशी की गयी है जिसके बीच-बीच में १७ हिस्ट्री प्राफ इण्डियन एण्ड ईस्टर्न पाकिटेक्चर, समतल चतुष्कोण आते गये है जिससे दर्शक भव्य प्रानन्द पृष्ठ २४७ ।
में शराबोर हो जाता है। १८ केवल स्तम्भों पर प्राधारित मन्दिर, इससे बहुत २० श्रीमती जन्ना मौर श्रीमती एव्वायार, खजुराहो, पहले देवगढ़ मे निर्मित होने लगे थे।
पृ० १४२। १९ गागुलि, मो०सी०, दि पार्ट माफ चन्देलस, प०२१। २१ गांगुलि, मो०सी० : वही पु०१८-१९ ।