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अनेकान्त
प्रक्रम, उपक्रम और उदय इन चार अनुयोगद्वारों पर एक इस निरुक्ति के अनुसार जो जिसमें सम्बद्ध होता है, उसे अज्ञातकर्तृक पंजिका भी उपलब्ध है। यह पजिका भी निबन्धन स्वरूप से ग्रहण किया गया है। जैसे-चक्षु उक्त अनुयोगद्वारो के साथ १५वी जिल्द के अन्त मे इन्द्रिय चूंकि रूप विषय में सम्बद्ध है, अतः चक्षु का प्रकाशित की जा चुकी है। इस पंजिका मे प्रायः अल्प- निबन्धन रूप होता है३ । यद्यपि इस अनुयोगद्वार में जीवबहुत्व से सम्बद्ध कुछ विशेष प्रकरणों का ही स्पष्टीकरण पुद्गलादि छहों द्रव्यों के निबन्धन की प्ररूपणा की जाती किया गया दिखता है । पंजिका की उत्थानिका में पंजिका- है, तो भी यहां अध्यात्मविद्या का अधिकार होने से केवल कार ने लिखा है१
मूल और उतर कर्म प्रकृतियों के ही निबन्धन की प्ररूपणा महाकर्मप्रकृतिप्राभृत के कृति-वेदनादि २४ अनु- की गई है। । जैसे-ज्ञानावरण के निबन्धन की प्ररूपणा योगद्वारों में कृत्ति और वेदना अनुयोगद्वारों की वेदना करते हुए यह कहा गया है कि ज्ञानावरण सब द्रव्यों में खण्ड में; स्पर्श, कर्म, प्रकृति और बन्धन अनुयोगद्वार के निबद्ध है, न कि सब पर्यायों मे५ । अभिप्राय इसका यह अन्तर्गत बन्ध एवं बन्धनीय अनुयोगद्वारों की वर्गणाखण्ड है कि ज्ञानावरण की पाच प्रकृतियों में केवलज्ञानावरण में; बन्धविधान की महाबन्ध में; तथा बन्धक अनुयोग
का व्यापार मब द्रव्यों में है और शेष मतिज्ञानावरणादि द्वार की क्षद्रकबन्ध खण्ड में विस्तार से प्ररूपणा की गई चार प्रकृतियों का व्यापार उन द्रव्यों की समस्त पर्यायों है। इसलिए इनको छोड़कर शेप मब अठारह अनुयोग- में न होकर कुछ ही पर्यायों में होता है। हारों को प्ररूपणा सत्कर्म में की गई है। फिर भी उसके
८. प्रक्रम-'प्रक्रामति इति प्रक्रमः' इस निरुक्ति के प्रतिशय गम्भीर होने से यहाँ उसके विषम पदों के अर्थ प्रनमार यहां जो कार्मण पुदगलों का ममूह अपना कार्य का व्याख्यान पजिकाररूप से किया जाता है। उन अठारह करने में प्रकर्ष में समर्थ होता है वह विवक्षित है। इस अनुयोगद्वारों का विषय परिचय सक्षेप में इस प्रकार है- अधिकार मे अकर्म स्वरूप से स्थित जो कार्मणवर्गणास्कन्व
७. निबन्धन-निबन्धन का अर्थ कारण या निमित्त मूल-उत्तर प्रकृतियों के स्वरूप से परिणत होते हुए प्रकृति, होता है, परन्तु यहां 'निबध्यते तत् अस्मिन् इति निबन्धनम्' स्थिति और अनुभाग की विशेषता से विशेषता को प्राप्त
होते हैं उनके प्रदेशों की प्ररूपणा की गई है। प्रकर्म से १. महाकम्मपयडिपाहुइस्स कदि-वेदणामो [इ] चउव्वीममणियोगहारेसु तत्य कदि-वेदणा त्ति जाणि
३. णिबधण मूलुत्तरपयडीणं णिबधणं वण्णेदि। जहा प्रणियोगद्दाराणि वेदणाखडम्मि, पुणो य [पस्स
__चक्खिदिय रूवम्मिणिबद्ध, सोदिदिय सम्मि णिबद्धं, कम्म पयडि बधण ति] चत्तारिमणियोगद्दारेसु तत्थ
धाणिदिय गम्मिणिबद्ध, जिभिदियं रसम्मि णिबद्ध, बध-बंधणिज्जाणमणियोगेहि सह वग्गणाखडम्मि,
पासिदियं कक्खदादिपासेसु णिबद्धं; तहा इमानो पृणो बधविधाणणामाणियोगद्दारो महाबधम्मि, पुणो
पयडीयो एदेमु प्रत्येसु णिबद्धामो ति रिणबधणं परूबंधगाणियोगो खुद्दाबधम्मि च सप्पवचेण परूविदाणि।
वेदि, एसो भावत्यो । धवला पु. ९ पृ. २३३ । पृणो तेहितो सेसेटारसागियोगद्दाराणि संतकम्मे ४. एद णिबधणाणियोगद्दारं जदि वि छण्णं दवाणं णिसव्वाणि परविदाणि । तो वि तस्साइगभीरत्तादो बंधणं परूवेदि तो वि तमेत्थ मोत्तण कम्मणिबंधण प्रत्थविसमपदाणमत्थे थोरुत्थयेण पजियरूवेण भणि- चेव घेतब्वं, प्रज्झप्पविज्जाए अहियारादो। (सतस्सामो। सतकम्मपजिया (धवला पु. १५) पृ १। कम्म) धवला पु. १५ पृ. ३। २. जिसमे पदविभाग के साथ अर्थ का स्पष्टीकरण ५. तत्थ णाणावरण सव्वदम्वेसु णिबद्धं, णो सम्वपज्जाकिया जाता है वह पजिका कहलाती है । यथा
एसु ॥१॥ धवला (संतकम्म) पु. १५ पृ ४। कारिका स्वल्पवृत्तिस्तु सूत्र सूचनकं स्मृतम् । ६. यह अनुयोगदार धवला पु. १५ पृ. १-१४ मे प्ररूटीका निरन्तरं व्याख्या पंजिका पदभंजिका ॥
पित है।