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अनेकान्त
था। द्वादशानी के विवरण में सर्वत्र यह मिलता है कि सन्तानोत्पत्ति प्रावश्यक कर्म है। इसलिए सहज ही यह प्रत्येक प्रङ्ग में सख्येक श्लोक थे२। वैदिक, जैन और प्रश्न होता है कि बृहदारण्यक में एषणा त्याग का विचार बौद्ध साहित्य से भिन्न पूर्ववर्ती श्रमण साहित्य भी विद्य- कहां से पाया? इस आधार पर यह कल्पना होती है कि मान था३ । यह असम्भव नही कि उपनिषदों का ब्रह्म- उपनिषद् का कुछ भाग धमणों की रचना है, अथवा विद्या सम्बन्धी विवरण व श्लोक साहित्य किसी पूर्ववर्ती श्रमणों और वैदिक ऋषियों का मिला-जुला प्रयत्न । ब्रह्म-विद् श्रमण परम्परा का प्राभारी हो।
कुछ और अतीत में जाएँ तो कहा जा सकता है कि यह निर्ग्रन्थ परम्परा में उद्दालक, नारद, वरुण, अङ्ग क्रम म्भिक काल तथा उससे पूर्व वेदकाल में ही ऋषि (या अङ्गिरस) याज्ञवल्क मादि प्रत्येक बुद्ध हुए हैं। प्रारम्। हो गया था। अरुण, केतु और वातरशन ये उपनिषदो मे भी इनका उल्लेख है।।
तीन प्रकार के ऋषि थे। उनमें वातरशन ऋषि श्रमण कही-कहीं तो विषय साम्य भी है। "जब तक लो
थे, भगवान ऋषभ के शिष्य थे। वे ऊर्ध्वमन्यी (ऊर्ध्वकपणा है तब तक वित्तषणा है। जब तक वित्तषणा है
रेता) हो गए हैं। उनके पास कुछ दूसरे ऋषि जिज्ञासा सब तक लोकेपणा है। साधक लोकेषणा और वित्तषणा
लिए हुए पाए । उन्हें पहले ही मालूम हो गया था, प्रतः का त्याग कर गोपथ जाए, महापथ से न जाए-यह महत्
वे उनके आने से पहले ही अन्तहित हो गये। योग सामर्थ्य याज्ञवल्क ऋपि ने कहा५ ।"
से शरीर को मूक्ष्म बना 'कूष्माण्ड' नामक मत्र वाक्य में बृहदारण्यक के याज्ञवल्क्य कुपीतक के पुत्र कहोल से ,
प्रविष्ट हो गए। आने वाले ऋपिगण ने चित्त को शान्त कहते हैं-यह वही आत्मा है, जिसे जान लेने पर ब्रह्म
किया और ध्यान मे देखा तो उन्हें वे वातरशन श्रमण ज्ञानी पुत्रपणा, वित्तषणा और लोकपणा से मुह फेर कर
प्रत्यक्ष दीखे । वे वासरशन श्रमण से बोले- पाप क्यों ऊपर उठ जाते हैं। भिक्षा से निर्वाह कर सन्तुष्ट रहते
अन्तहिन इए ?" तब उन्होने कहा-'हम आपको है। .....'जो पुत्रपणा है, वही वित्तषणा है। जो वित.
नमस्कार करते हैं। आप हमारे स्थान पर पाए हैं. हम षणा है वही लोकषणा है६ ।
आपकी क्या परिचर्या करे।" तब पाने वाले ऋषिगण ने इसि भोमियाइ के याजवल्क्य भी एषणा-त्याग के
कहा-“वातरशन ऋषि ! पाप हमें वैसा पवित्रबाद वृहदारण्यक के याज्ञवल्क्य की भाति भिक्षा से सन्तुष्ट
शुद्धि का स्थान बालाएं, जिससे हम पानि हो रहने की बात कहते हैं। इस प्रकार दोनों की कथन
जाएं." उन्होंने पाने वाले ऋषिगण को शुद्धि का साधन शैली में विचित्र समानता है। वैदिक विचार धारा मे
बनलाया और वह ऋषिगण पापरहित हो गया । पुत्रषणा के त्याग का स्थान नहीं है। उसके अनुसार
इस प्रकार से यह प्रतीत होता है कि ऋपि श्रमणो १. इंडियन हिम्टोरिकल क्वार्टरली भा० ३५० ३०७- से मिलते थे और उनसे यात्म धम का बोब लेते थे।
एम. विन्टरनिट्ज ने अर्वाचीन उपनिषदों को अवै. ___३१५ (उमेशचन्द्र भट्टाचार्य का लेख)
दिक माना है११ । किन्तु उक्त तथ्योसे यह प्रमाणित होता २. समवायाङ्ग सूत्र १३६-१४६, नंदीसूत्र ४५-५५
है कि प्राचीन उपनिषद् भी पूर्णतः वैदिक नही हैं। * ३. The Jainas in the history of Indian Literature By Dr Mauricc Winternitz Ph. D. ८. वादक कोप ४७३-यह शब्द ऋग्वेद १०, १३६, Page 5-"Even before there was such a
२ मे मुनियो के लिए और तैत्तिरीय पारण्यक १, thing as Buddhist as Jaina Literature be sides the Brahmanic Literature.
२३.२; १. २४४; २,७,१ में ऋषियो के लिए ४. उद्दालक छान्दोग्य ५, नारद छान्दोग्य ७, अङ्गिरस
पाया है। नग्न साधु अभिप्रेत है, जिनका उल्लेख
परवर्ती साहित्य मे बहुधा मिलता है। मुलुकं १२२ वरुण तेत्तिरेय ३३१, याज्ञवल्क्य वृहदा
९. श्रीमद्भागवत । ज्यक ३४१ ५ . इसिभासियाह १२ १०. तैत्तिरीयारण्यक प्रपाठक २ अनुवाक् पृ०१३७-१३६ ६. बहदारण्यक ३,५,१७. इसिभासिया१.१-२। ११. प्राचीन भारतीय साहित्य, पृ०१९०-१९१।