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पदसण्डायम और शेष १८ अनुयोगहार
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कर्म की उत्पत्ति कैसे होती है, इस प्रसंग को पाकर यहां भी प्राप्त होता है, उसे अनुभागमोक्ष जानना चाहिए। प्राचार्य वीरसेन ने कारण-कार्य का विस्तार से विवेचन मध.स्थिति के गलने से जो कर्मप्रदेशों की निर्जरा होती करते हुए पाप्तमीमांसा की ४१, ५९-६०, ५७ और है अथवा उनका जो अन्य प्रकृतियों में संक्रमण होता है, से १४ कारिकामों का अनुसरण करके अन्त में कयचित् इसे प्रदेशमोक्ष कहा जाता है। इन मोक्षभेदों में प्रत्येक सदादिरूप सप्तभंगी की योजना की है।
के जो देशमोक्ष और सर्वमोम के भेद से दो भेद तथा . उपक्रम-इम अनुयोगद्वार मे बन्धनोपक्रमर, उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट मोक्षादि के भेदमे अन्य भी जो पार भेद उदीरणोपक्रम ३, उपशामनोरक्रमा और विपरिणामोप- होते हैं उन सभी की इस अनुयोगद्वार मे प्ररूपणा की क्रम५ ये चार अधिकार हैं। इनमें बन्धनोपक्रम में बन्धके गई है। द्वितीय समय से लेकर प्राठों को के प्रकृति, स्थिति. १२. संक्रम-सक्रम से यहा कर्मसंक्रम की विवक्षा अनुभाग और प्रदेश इनके बन्ध की प्ररूपणा की गई है। है। वह प्रकृतिमक्रम पादि के भेद से चार प्रकारका है। उदीरणोपक्रम में उन्ही चारों को उदीरणाका विचार उनमे प्रकृति जो अन्य प्रकृति रूप से परिणत होती है, किया गया है। उपशामनोपक्रम में प्रकृति प्रादि के भेद इसका नाम प्रकृतिसंक्रम है। यह प्रकृतिसक्रम मूल प्रकसे चार भेदों में विभक्त प्रशस्त और प्रशस्त उपशाम- तिया म कमा भा नहा हाता है। उत्तर प्रकतिया मम नामो का विवेचन है। तथा विपरिणामोपक्रम में उक्त दर्शनमोहनीय कभी चारित्रमोहनीयरूप और चारित्रमोहप्रकृति व स्थिति पादि को देशरूप व सकलरूप निर्जरा नीय कभी दर्शनमोहनीयका परिणत नही होती है । इसी की प्रकपणा की गई है।
प्रकार चार प्रायु कर्मों में भी परस्पर सक्रमण नहीं होता। १०. उपय-इस अनुयोगद्वार में मूल और उत्तर
प्रकृत उत्तरप्रकृतिसंक्रम का विवेचन यहाँ स्वामित्वादि प्रकृतियों के पाधार से स्थिति, मनभाग और प्रदेश के अधिकारों के द्वारा किया गया है। उदय का-वेदन का-विचार किया गया है।
स्थितिसक्रम मूल व उत्तर प्रकृति के भेद से दो ११. मोश-मोज मे यहा कममोक्ष अभिप्रेत है। प्रकारका है। इनमे जो स्थिति अपकर्षण या उत्कर्षण वह चार प्रकार का है-प्रकृतिमोक्ष, स्थितिमोक्ष, अनु- को प्राप्त कराई जाती है पयवा अन्य प्रकृतिरूप भी परिभागमोक्ष और प्रदेशमोक्ष । इनमे प्रकृति जो निर्जरा को ण करायी जाती है, इसका नाम स्थितिसक्रम है। प्राप्त होती है अथवा अन्य प्रकृतिरूप परिणत होती है, इसी प्रकार जो अनुभाग भी अपकर्षण या उत्कर्षण को उसका नाम प्रकृतिमोक्ष है। स्थिति जो अपकर्षण, उत्कर्षण प्राप्त कराया जाता है यथवा अन्य प्रकृतिरूप संक्रान्त प्रथवा मक्रमण को प्राप्त होती है या अब स्थिति के गलने किया जाता है उसे अनुभागसक्रम जानना चाहिए। में निर्जरा को भी प्राप्त होती है, उसे स्थितिमोक्ष कहते प्रदेशपिण्ड जो अन्य प्रकृतिरूप परिगत होता है वह प्रदेशहैं । अनुभाग जो अपकर्षण, उत्कर्षण अथवा संक्रमण को संक्रम कहलाता है। यह प्रदेशसंक्रम मूल प्रकृतियों नहीं प्राप्त होता है या अध.स्थिति के गलन से निर्जरा को होता । उत्तर प्रकृतियों में होने वाला प्रदेशसक्रम उदलन------ --- - --
संक्रम, विध्यातसंक्रम, प्रवःप्रवृत्तसक्रम, गुणसंक्रम पौर १. धवला पु०१५पृ. १५-४०।
सर्वसंक्रम के भेद से पांच प्रकारका है। इन पांचों की २. धवला पु०१५ पृ० ४२-४३ । ३. धवला पु०१५ पृ० ४३-२७५ ।
७. इस अनुयोगहार की प्रस्मणा पवला पु०१६, पृ० ४. धवला पु. १५ पृ० २७५-१२ ।
२३७-३८ में देखिए। ५, पवला पु०१५ पृ० २८२-८४ ।
८. देखिये धवला पु० १६ पृ० ३३६-४७ । ६. धवला पु० १५ १० २८५-३३६ मे इसकी प्ररूपणा ६.धवला पु०१६ पू०३४७-७४ । की गई है।
१०.धवला पु० १६ पृ० ३७४.४०५।