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अनेकान्त
महामण्डप का प्रवेश द्वार तत्कालीन स्थापत्य का और प्रतिष्ठासारोद्धार२६ के अनुसार महामानसी हैं। प्रतिनिधित्व करता है। प्रायताकार बड़ेर एक ही पत्थर चौखट के ऊपरी भाग के दोनों छोरों पर एक-एक की है और द्वारपक्ष पर आधारित है। द्वारपक्ष समाना- प्रतिमास्थान हैं और ये मध्यवर्ती प्रतिमास्थान से छोटे है। न्तर प्रसार पट्टिकानों से बने हैं जिनके विविध प्रलंकरण इनमें विभिन्न तीर्थकरों का अकन हुमा है। चौखट के दर्शनीय हैं। द्वारपक्षों पर नीचे खड़ी प्राकृतियाँ अंकित गरी भाग के ही बायें पार्श्व में नवग्रहों का प्रकन है। की गई हैं, यह पद्धति समूचे भारतीय स्थापत्य में कम-से- नवग्रहों के इस प्रकन और दक्षिण भारत में प्रचलित कम गुप्त युग तक देखी जा सकती हैं। द्वार की चौखट अंकन मे कुछ सूक्ष्म अन्तर है२७ । दायें पाश्व में पशुएक आयताकार सोपान पर स्थित है। इसमे अत्यधिक मस्तकों वाली पाठ प्राकृतियाँ हैं जो खण्डित होने से पहिनक्काशी और अलकरण है। चौखट के नीचे का भाग एक चानी नहीं जा सकती। चौखट के ऊपर तीर्थकर की ऊंची सीढ़ी का काम भी करता है । उसकी ऊंचाई से पूरे माता२८ के सोलह मङ्गलस्वप्न उत्क्रीणं है। मङ्गलस्वप्नों द्वार के विस्तार में ऊचाई आ गयी है। उसमें एक बहुत की मान्यता भारत मे बहुत प्राचीन काल से है। छान्दोग्य ही सन्दर पुष्पाकृति का अलंकरण है। उसके दोनों ओर उपनिषद मे लिखा है कि 'वह स्त्री को देखे तो समझ ले देवतामों और दोनों कोणों पर एक-एक हाथी का अंकन कि कार्य सफल हो गया। जैमा कि इस श्लोक मे लिखा है। चौखट का ऊपरी भाग दो भागों में विभक्त है। है . जब अभीष्ट कार्यों को हाथ मे ले चुकने पर स्वप्न मे उसके मध्य में एक प्रतिमास्थान है, जिसमें प्रथम तीर्थकर स्त्री दिखे तो उस स्वप्न के निमित्त से समझ ले कि उन प्रादिनाथ की अष्टभुजी२२ चक्रेश्वरी स्थित है। श्रीमती कार्यों में सफलता मिलेगी ही२६। महावीर-पूर्व काल में जन्ना और श्रीमती एन्वायर इसे सोलहवें तीर्थकर शान्ति- स्वप्नों का फल बतानेवाले व्यक्ति निमित्तपाठक कहलाते नाथ की यक्षी निर्वाणी मानती है२३ जो उचित नही; थे। ग्राजीवक संप्रदाय मे निमित्तशास्त्र बहत लोकप्रिय क्योंकि (१) तिलोयपण्णत्ती, वास्तुशास्त्र और प्रतिष्ठा- था। ईस्वोपूर्व प्रथम शताब्दीमे कालकाचार्य ने इन्ही से सारोद्वार के अनुसार किसी भी तीर्थकर की यक्षी का निमित्तशास्त्र मे पूर्ण विद्या प्राप्त की थी३० । प्रगविज्जा नाम निर्वाणी नहीं है, (२) शान्तिनाथ की यक्षी का नाम नामक (लगभग ६०० ई०) एक महत्वपूर्ण जैनग्रन्थ में तिलोयपण्णत्ती२४ के अनुसार मानसी और वास्तुशास्त्र२५ निमित्त विद्या का वर्णन है। श्वेताम्बर जैन मान्यता के २२ प्रतिष्ठासारोद्धार (अध्याय ३, श्लोक १५६) के अनुसार भगवान महावीर जब देवनन्दा ब्राह्मणी के गर्भ में
अनुसार चक्रेश्वरी के १६ हाथ और वास्तुशास्त्र २६ अध्याय ३, श्लोक ·५६-१७८ । (भाग २, पृ० २७२) के अनुसार उसके १२ हाथ २७ शिवराममूर्ति, प्रो०सी० : कानालाजिकल फेक्टसं इन होना चाहिये । परन्तु खजुराहो के आदिनाथ मन्दिर इण्डियन प्राइकोनोग्राफी : ऐश्वेट इण्डिया, भाग ६ । और संग्रहालय तथा छतरपुर के गांधी स्मारक संग्र- २८ साधारण लेखको की धारणा है कि मङ्गल स्वप्न हालय और देवगढ़ आदि मे इस यक्षी को विभिन्न महावीर की माता त्रिशला ने ही देखे थे जब कि यह रूपों में देखा जा सकता है। उसके हाथों की विभिन्न विशेषता सभी तीर्थकरों की माताओ की है। सख्यामो और उनमे धारण की गई वस्तुमो की २६ ‘स यदि स्त्रियं पश्येत् समृद्ध कर्मेतिविधात् । विविधता को देखकर यह धारणा प्रबल होती है कि
तदेष श्लोक. : कलाकार शास्त्रीय विधानों का बहुत अधिक कायल
यदा कर्मसु काम्येषु स्त्रियं स्वप्नेषु पश्यति । नहीं था।
समृद्ध तत्र जानीयात् तस्मिन् स्वप्ननिदर्शने ॥' २३ खजुराहो, पृ० १४३ ।
छान्दोग्य उपनिषद, २, ७-८ । २४ भाग १, महाधिकार ४, गाथा ६३७-३९। ३० शाह, उमाकान्त प्रेमानन्द : स्टडीज इन जैन आर्ट, २५ भाग २, ५०२७१-७२ ।
पृ० १०५, टि०१।