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जैन साहित्य के अनन्य अनुरागी-डा. वासुदेवशरणमग्रवाल
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थे। जैन कला का संक्षिप्त वर्णन उन्होंने "मथुरा की जैन प्रसन्नता होती है कि जैन विद्वान निष्ठा के साथ इस कला" जयपुर से प्रकाशित लेख मे किया है। उन्होंने कार्य में लगे हुये हैं। उनके सफल प्रयल उत्तरोत्तर लिखा है कि मथुरा जैन धर्म का भी प्राचीन केन्द्र रहा है। बलवान हो रहे हैं। प्राकृत और अपभ्रंश भाषामो की बौद्धो एवं हिन्दुओं की भाति जैन धर्म के अनुयायी प्राचार्यों सामग्री मे तो अब प्राय देश के सभी विद्वानों की अभिरुचि ने मथुरा को अपना केन्द्र बनाकर अपने भक्त श्रावक बढ रही है। ये विचार है जो उन्होने प्रकाशित जैन श्राविकानो को प्रेरित करके प्राचीन मथुरा मे स्तूपो और साहित्य के प्राक्कथन मे व्यक्त किये हैं। मन्दिरो की स्थापना की । कंकाली टीले की खुदाई मे जैन
"डा० साहब ने जैन धर्म, साहित्य एवं संस्कृति के शिल्प कला की सामगी प्राप्त हुई है।
सम्बन्ध में जिन पुस्तकों एव लेखों में उल्लेख किया है डा. अग्रवाल साहब का एक लेख जैन विद्या, उनमे से कुछ के नाम निम्न प्रकार हैं : श्री महावीर स्मृति ग्रन्थ में सन् १९४८-४९ मे प्रकाशित
१.५ परमानन्द जी शास्त्री द्वारा सम्पादित "जैन हया था जिसमे उन्होने विस्तार से जैन साहित्य के महत्व ग्रन्थ प्रशस्ति सग्रह-प्राक्कथन पर प्रकाश डाला है। उन्होने एक स्थान पर लिखा है।
२ राजस्थान के जैन शास्त्र भडारों की ग्रन्थ सूची
भाग ४-दो शब्द सम्पादक डा. कस्तूरचद "इन सबसे बढ़कर एक दूसरे क्षेत्र म जैन विद्या का
कासलीवाल, १० अनूपचद न्यायतीर्थ सर्वोपरि महत्व हमारे सामने आता है और वह है भाषा
३. बीकानेर के जैन लेख संग्रह:थी अगरचन्द शास्त्र के क्षेत्र मे । भारत की प्रायः सभी प्रान्तीय भाषायो का विकास अपभ्रश से हुआ है । जैन साहित्य मे अपभ्रश
जो नाहटा प्राक्कथन भाषा के ग्रन्थो के कितने ही भन्डार भरे है। अभी बीसियो
४. प्रकाशित जैन साहित्य : सयोजक श्री पन्नालाल वर्ष तो इस माहित्य को प्रकाशित करने में लगेगे। लेकिन जैन अग्रवाल-प्राक्कथन जो भी ग्रन्थ छप जाता है वह भी हिन्दी भाषा की उत्पत्ति
५. जैन साहित्य का इतिहास : पूर्व पीठिका : और विकाम के लिये बहुत सी नई सामग्री हमारे लिये
पं० कैलाशचन्द जी शास्त्री-प्राक्कथन प्रस्तुत करता है। हिन्दी भाषा मे एक-एक शब्द की ६. "जन विद्या" श्री महावीर स्मृति ग्रन्थ भाग १ व्युत्पत्ति खोज निकालने का बहुत बड़ा काम अभी शेष है। सन् १९४८-४९ मे प्रकाशित-लेख व्याकरण की दृष्टि से वाक्यो की रचना और मुहावरों के
७. मथुरा की जैन कला . महावीर जयन्ती स्मारिका, प्रारम्भ का इतिहास भी महत्वपूर्ण है। इसके लिये अपभ्रश जयपुर : अप्रैल १९६२-लेख साहित्य से मिलने वाली समस्त सामग्री को तिथिक्रम के ८. हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहाम: अनुसार छाटना होगा और कोष और व्याकरण के लिये डा० कामता प्रसाद जी जैन-प्राक्कथन उसका उपयोग करना होगा।"
९. रूप रूप प्रतिरूपोभव" : विजय मूरि स्मारक ____ जहा तक भारतीय संस्कृति और वांगमय का सम्बन्ध
ग्रन्थ-लेख है। हम उसके अखन्ड स्वरूप की आराधना करते है। उक्त कुछ प्राक्कथनों के अतिरिक्त डा. अग्रवाल के ब्राह्मण और श्रमण दोनो ही धारागो मे उसका स्वरूप "अनेकान्त" जैन सिद्धान्त भास्कर, वीरवाणी प्रादि पत्रो सम्पादित हया है। श्रमण सस्कृति के अन्तर्गत जन में जैन साहित्य एव पुरातत्व के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण लेख संस्कृति, साहित्य, धर्म, दर्शन और कला इन चार क्षेत्रो भी प्रकाशित हये हैं। "अग्रवाल साहब" के निधन से मे प्रति समृद्ध सामग्री प्रस्तुत करती है। नई दृष्टि से साहित्यक समाज की जो महती क्षति हई है उसकी निकट उसका अध्ययन और प्रकाशन आवश्यक है। यह देखकर भविष्य मे पूति होना सम्भव नही है।