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बंगाल का गुप्तकालीन जैन ताम-शासन
इष्टक राशि अपसारण करते समय यह ताम्रपत्र माविष्कृत पञ्चस्तूप-निकायिक३-निग्रन्थ-श्रमण-प्राचार्य-गुहनन्दि हुप्रा था। इसकी प्राप्ति अवस्था सूचित करती है कि इस -शिष्य-प्रशिष्य-प्राधिष्ठित-विहारे । विहार की अन्तिमावस्था पर्यन्त बहा दफ्तर (Archines) ७. भगवताम्-प्रहंताम्-गन्ध-दीप-सुमनो-दीपमे यह सुरक्षित था।
प्राद्य-प्रर्थन् तल-वाटक-निमित्तञ्च प्रति) एब वटइसकी कतिपय पक्तिया और प्रक्षर घिस गये हैं, तथा गोहालीतो वास्तु-द्रोणवापम् प्रध्यन्-िजमजदूरो की असावधानी से भी ऊपर के दक्षिण कोने में ८. म्बुदेव-प्रावेश्य-पृष्ठिम्=पोत्तकेत्४ क्षेत्र द्रोणएक छिद्र हो गया है । तो भी इस ताम्रपत्र की अवस्था वाप-चतुष्टयम् गोपा-टपुजाद-द्रोणवाप-चतुष्टयम् मूल अच्छी है। इसकी नाप ७.४१॥ इच है और इसका नागिरट्टवजन २६ तोला है।
१. प्रावेश्या-नित्व-गोहालीतः अर्द्ध-त्रिक-द्रोणइसकी लिपि उत्तरीय पंचम शताब्दी की है, भाषा वापान इत्य एवम् प्रध्यर्द्धम् क्षेत्र-कुल्यावापम् प्रक्षय. सस्कृत है। अन्त के पाच प्रमगल प्रार्थी पद्यो के अतिरिक्त नीव्या दातुम इ[त्य-पत्र] यतः प्रथमसारा लेख पद्य मे है।
१०. पुस्तपाल-दिवाकरनन्दि-पुस्तपाल-धृतिविष्णुपहाड़पुर का ताम्र शासन गुप्ताब्द १५७ (सन् ४७६) विरोचन-रामदास-हरिदास-शशिनन्दि-षु प्रथमनु५.." अग्रभाग
[ना] म् अवधारण६१. स्वस्ति [ITHI] पुण्ड्र [बर्द्ध] नादम्पआयुक्तक.१
११. य=प्रावधृतम् प्रस्त्य-प्रस्मद् अधिष्ठान्-प्राधिप्रार्य-नगर श्रेष्ठि-पुरोगञ्च अधिष्ठान्-प्रधिकरणम्
करणे द्वि-दीनारिक्कय-कुल्यवापेन शश्वत् काल-प्रोपभोग्य दक्षिणाशक-वीथेय-नागिरट्ट
-पाक्षय-नीवी-समु, [द य-वा] ह्य-पाप्रतिकर२. माण्डलिक-पलाशा-पाश्विक-बट-गोहाला -
१२. [खिल+]-क्षेत्र-वास्तु-विक्रयो-तुवृत्तस्त द्जम्मुदेव-प्रावेश्य-पृष्ठिम-पोत्तक-गोषा-टपुजक-मूल
यद-युष्माम् ब्राह्मण-नाथ-शर्मा एतद् भार्या रामी च नागिरट्ट-प्रावेश्य
पलाशाट्ट-पाश्विक-वट-गोहालीस्थर (?)-य ३. नित्व-गोहालीषु ब्राह्मण-मोत्तरान् महत्तरप्रादि-कुडम्बिनः कुशलम्-अनुवरार्ण्य =प्रानुबोधयन्ति [+]
१३. [काशि] ....'क=पंच-स्तूप-कुल-निकायिकविज्ञापयत्य-प्रम्मान् ब्राह्मण-नाथ
प्राचार्य-निग्रन्थ-गृहनन्दि-शिष्य-प्रशिष्य -प्राधिष्ठित४. शर्मा एतद्-भार्या रामी च [1] युष्माकम् इह- ३. १३वी पंक्ति मे पञ्चस्तूप-कुल-निकायक है-प्रस्तु अधिष्ठान्-प्राधिकरणे द्वि-दीनारिक्कय - कुल्यवापेन
यहां भी इसी अर्थ का द्योतक है । यहा पाच निकायो अश्वत्-काल-पोपभोग्य-प्राक्षय-नीवी-समुदय-बाह्य-पा
का प्राशय नहीं है किन्तु यहा निकाय का अर्थ ५. प्रतिकर-खिल-क्षेत्र-वास्तु-विक्क्रयो नुवत्तस् =
[जैनाचार्यों की] शाखा है । पच-स्तूप किसी स्थान तद्-ग्रह-प्रानेन् एव वक्रमेण प्राचयोस्-सकाशाद्
का नाम होना चाहिये । श्रुतावतार कथा में दीनार-त्रयम्-उपसगृह्य-प्रावयो [म+स्व-पुण्य-प्राप्या
सेनसंघ की उत्पत्ति इस प्रकार है कि जो मुनि ६. यनाय बट-गोहाल्याम् अवास्या काशिक
पंचस्तूपों में से पाये वे सेनमघ के नामधारी हुए। + EPI. Ind. Vol. XX P.P. 61-63 By K. N. ४. इसमे त् अत्यधिक है। Dikshit.
५. इसके बाद कई प्रक्षर नष्ट हो गए है। १ ताम्रपत्र मे युक्त का मार्य है-इस पाठ से सूचित ६. दामोदरपुर के शासन से मालूम होता है कि अवधाहोता है कि दो से अधिक मायुक्तक थे।
रणया के पहले पुस्त पालों के नाम थे । २. एव् पाठ पढ़ें। H. Shastri connects the Name ७. युष्मान् पढ़िए । with नव्यावकाशिकाः
८. ऊपर की छठी पंक्ति से मिलान करें।