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अनेकान्त
पूजा, प्रतिष्ठा, जन्म-मरण, मुक्ति और दुखघात ये अहिंसा ही जीवन है, अहिंसा ही स्वर्ग है, अहिंसा ही तीनों ही हिंसा के परिणाम नहीं हैं, फिर भी अनजान स्वास्थ्य है । अहिंसा में स्पष्टता है। निर्णायकता है। पर व्यक्ति हिंसा से ही इन ईप्सित चीजों को पाना अहिंसा की भूमिका प्रभय है । अभय के बिना अहिंसा का चाहते हैं।
उद्भव और विकाम दोनों ही अहंभाव्य है । अहिंसक की भाग्रह और प्रज्ञान भाव हिंसा के अनन्य कारण हैं। साधना का प्रथम चरण अभय है। अभय की सुदृढ़ भित्ति इसीलिए प्रज्ञान और अभिनिवेश महत्तर पाप माने गए पर ही अहिंसा का वृक्ष फलता-फूलता है। है और सच तो यह है कि हिसा के समग्र कारणों में अभय को साधना विधि का उत्कृष्ट पालम्बन जान बलवान कारण अज्ञान ही है । प्रज्ञान के अभाव में प्रति- कर उसपर अहिंसा को विकसित करता है और हिंसा से शोध, प्राशका, पूजा, प्रतिष्ठा प्रादि कारण नगण्य दूर होता हैं, वह कुशल है। के बराबर है।
अातंक द्रष्टा-अर्थात् हिंसा जीवन के लिए पीड़ाहिसा जीवन की एक जटिल गाठ है । जिसको
जनक है, ऐसा जो मानता जानता है, वह हिंसा में प्रहित सुलझाना बहुत कठिन है। हिसा व्यामोह है। हिंसा-रत
देखता है और उसे न करने का संकल्प करता है। व्यक्ति निर्णय की शक्ति नहीं रखता। हिसा स्वयं के लिए
जब हिंसा के मनोभाव ही नहीं जागेगे तो निःशस्त्रीजीते जी मृत्यु है और भयकर नरक है हिंसक हिंसा के कारण और हिंसा के स्वरूप की इतनी स्पष्टता के बाद
करण का प्रश्न स्वतः समाहित है। जिस निशस्त्रीकरण
के लिए भाज विदेशों में गोष्ठियां बुलाई जाती हैं, वह पहिंसक अहिंसा के कारण और अहिंसा के स्वरूप की व्याख्या आवश्यक नही । यह तो स्वतः फलित है-जो
जैन दर्शन का सहज फलित रूप है। जो प्रात्म-हित, देश हिंसा के कारण नहीं है, वे अहिंसा के है। जो हिंसक
हित समाजहित मादि सभी दृष्टियों से प्रत्युत्तम है। और
जिसकी समुचित प्रकृतियां भी जैन-दर्शन ने ससार को वृत्तियों से या हिंसक के लिए बताए गए विशेषणों रुग्ण,
दी है। प्रमादी, विषयार्थी आदि से प्रतीत है, वह महिंसक है। १. प्राचाराग, अध्याय १, उह शक २, सत्र १
३. वही,०१, उ०४, सूत्र १ २. वही, अ० १, सूत्र ४
अभय विदित्ता तं जे णो करए। एस खलु गन्थे, एस खलु मोहे. एस खलु मारे, एस ४. वही, उ० ७, सूत्र १ खलु नाइए
प्रायकदंसी अहियंति नच्चा ।
ठगनी माया सुन ठगनी माया, ते सब जग ठग साया। टुक विश्वास किया जिन तेरा, सो मूरख पछिताया ॥१॥ पापा तनक दिखाय बीज ज्यों, मूढमती ललचाया। करि भव अंष धर्म हर लीनों, अन्त नरक पहुंचाया ॥२॥ केते कंथ किये ते कुलटा, तो भी मन न अघाया। किस ही सौ नहि प्रीति निबाही, वह तजि और लुभाया ॥३॥ भूषर छलत फिरे यह सब को, भाँद कर जग पाया। जो इस ठगनी का ठगि बैठे, मैं तिसको सिर नाया ॥४॥
-कविवर भूपर दास