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बंगालका गुप्तकालीन ताम-वासन
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समय वहाँ जनों का ही पूर्ण प्राधान्य था।
प्रख्याति सर्वत्र हो गई और यहीं 'दीप'कर नामक प्रसिद्ध गुप्त साम्राज्य के प्रभुत्व काल में भी यद्यपि जैनों की बौद्धाचार्य ने भवविवेक के मध्यमक रत्नद्वीप का अनुवाद हो प्रधानता रही, पर साथ-साथ ब्राह्मण-प्रभाव भी धीरे- किया था। दशवी और ग्यारहवीं शताब्दी काल की भी धोरे बढ़ता रहा; किन्तु बौद्धों का प्रभाव यहाँ बहुत ही इमारतें इस पर हैं। कम था। इसका अनुमान चीनी यात्री के वर्णन से भली
पहाड़पुर के इस परकालीन बौद्ध मन्दिर से नगण्य भौति हो जाता है तो भी उस युग में यहां का वातावरण जैन ध्वंसावशेष उपलब्ध हुए हैं, पर ब्राह्मण और बौद्धों पूर्णत: सहिष्णुता का था, कारण यहाँ जैन, बोद्ध और हिदू के परवर्ती गुप्त काल के अनेक शिला पर अल्प-उत्तोलिततीनों ही सम्प्रदायो की प्राचीन सामग्री प्राप्त हुई है। भास्कर कार्य (Basreliefs) और दग्ध मृणमय पटरियां षष्ट शताब्दी के किसी समय में इस मन्दिर के वृद्धि
(Plagues, Terracottas) प्राप्त हुई हैं, जिनमें अनेक करण की मायोजना प्रारम्भ की गई थी और अट्टालि
तन्त्रादिक कथा-साहित्य के प्राचीन उपाख्यानों को सूचित कामोकी ऊचाई को बहुत बढ़ाया गया जिससे सम्भवतः
__ करनेवाले चित्र भी हैं। ऐसे जनसाधारण के पूज्य स्थान मध्यस्थित प्राचीन अट्टालिका पाच्छादित हो गई। जहाँ पर सभी सम्प्रदायों के लोग एकत्रित होते हों, वहाँ
छठी शती से गुप्तो का प्रभाव क्षीण होता गया और ऐसे चित्रों को सजाने के काम में लाना अत्यावश्यक ही सप्तम शताब्दी के प्रारम्भ मे बगाल मे महाराजा शशांक नही, अपितु अनिवार्य है। इससे प्रकट होता है कि इनमे का प्राधिपत्य हो गया। शशाक शैव धर्मावलम्बी था। देवमूर्तियाँ हैं और वे खास पूजन की दृष्टि से नहीं लगाई उसने जैन और बौद्धो को बहुत ही सताया था। तो भी गई हैं। किसी समय विद्वेषवश जैन सामग्री वहां से जैनों के पाँव यहाँ से नही उखड़े। तत्पश्चात् सप्तम अवश्य पृषक् कर दी गई है। शताब्दी में ही जब बंगाल में अराजकता का बोलबाला चीनी यात्री हयेनसागर जो खुष्टीय सप्तम सताब्दी हुआ तब धीरे-धीरे यहाँ से जैनधर्म विलीन होता गया। के पूर्वाद्ध में पौण्डवर्द्धन में आया था। वहां का वर्णन करते वटगोहाली का यह श्री गुहनन्दी जैन विहार भी पौण्ड- हुए लिखा गया है कि यहाँ एक सौ देव मन्दिर हैं। पर वर्दन और कोटिवर्ष की जन सस्थामो की भाँति क्षति- यहाँ निम्न-निग्रन्थ सब से अधिक हैं । इससे यह स्पष्ट हो प्रस्त हुआ। पुनः जब यहाँ शान्ति हुई और पालराज्य जाता है कि सप्तम सताब्दी के पूर्वार्द्ध तक तो यह विहार सुदृढ़ता से अष्टम शताब्दी मे सुस्यापित हुमा, उस समय निश्चय से जन भिक्षुओं को आकर्षित करता रहा है। यह स्थान सोमपुर के नाम से प्रख्यात हो चुका था।
और उस समय इस स्थान पर बौद्ध मठादि नहीं ३ । पाल नपतियो का अधिकार ३५० वर्ष तक रहा। हो सकता है कि अष्टम शताब्दी के लगभग कुछ काल पाल राजा बौद्ध धर्मावलम्बी थे। इनके समय में यहाँ पर्यन्त ब्राह्मणों का भी इस मन्दिर पर अधिपत्य रहा हो।
| नष्ट हा गई पार बौद्धो के प्रभाव ने तत्पश्चात् बौद्धों ने इस पर नूतन विहार भोर मठ निर्माण जोर पकडा और इस जैन विहार पर उनका पूर्ण अघि- कर इसे अपना लिया और शेष तक उनका अधिकार यहाँ : कार हो गया।
रहा, यह ऊपर पाल वंश के वर्णन में बताया जा चुका है। ईसा की अष्टम शताब्दी के शेष भाग मे अथवा नवम चीनी परिव्राजक के आगमन से १५० वर्ष पूर्व का शताब्दी के प्रारम्भ में पालवंश के द्वितीय सम्राट् महाराज
सम्राट महाराज यह ताम्रशासन जैनों के प्रभाव का केवल समर्थन ही नहीं धर्मपाल ने इसी विहार के ऊपर महाविहार निर्माण किया जाता है किन्त यहां तक प्रमाणित करता है कि यह विहार था, तब से यह स्थल धर्मपाल देव का "सोमपुर महाबौद्धबिहार" के नाम से प्रसिद्ध हो गया। इस विहार की . Memoirs of A.S.I. No.55 P. 8
1. Beals Budhist records of the Western १. पहाड़पुर से दक्षिण की ओर एक मील पर अब World Vol. II, Page 195 (A.S.I. Memoirs सोमपुर ग्राम है, वही सोमपुर था।
No. 55 P.3)