________________
२३६
अनेकान्त
अति प्राचीन है और इसमे धारावह गुरु शिष्यों की परम्परा श्रीयुत पं० काशीनाथ नारायण दीक्षित ने लिखा है कि चली माई है प्राचार्य भद्रबाहु तथा उसके शिष्य गुप्तिगुप्त कुशान कालीन मथुरा के जैन स्तूप (ककाली टीला) के (विशाखाचार्य महद्वलि) आदि प्रसिद्ध जैनाचार्यों का अतिरिक्त उत्तर भारत में मध्य काल से पूर्व एक भी जैन यह स्थान पुण्डवर्द्धन और कोटि वर्ष में था। पुण्ड्रवर्द्धन के अट्टालिका अभी तक नहीं मिली है। पहाड़पुर का परवर्ती पटाचार्य मुनिसंघ का निग्रह अनुग्रह पूर्वक शासन करते थे गुप्तकालीन मन्दिर और प्रारम्भिक पाल कालीन विहार
और प्रत्येक पांच वर्ष के अन्त में सौ योजन क्षेत्र में निवास को मूल जैन मन्दिर का प्रसारण मोर वृद्धिकरण स्वरूप करने वाले मुनियों के समूह को एकत्र करके युग प्रतिक्रमण मान लेने से अनुमान होता है कि इस चार प्रवेश द्वार किया करते थे।
युक्त चतुष्कोण मन्दिर की वेदी चतुर्मुख थी जिसमें गुहनन्दी भी सम्भवतः भद्रबाह की परम्परा के प्रहन्ता का चार मूातया या पार सम्भवतः मान्दर से कुछ प्राचार्य मालूम होते हैं, प्राचार्यों के नंद्यान्त नाम प्राचीन ही दूरी पर श्रमणों या जैनमुनियों के लिये एक मठ था। काल से ही उपलब्ध होते हैं। अहंदबलि प्राचार्य ने नन्दी (चतुर्मुख या सर्वतोभद्र मन्दिरों का होना जैनों में भिन्न
और पंचस्तूपान्वय स्थापित किया था । नन्दी वृक्ष के मूल भिन्न काल और भिन्न-भिन्न प्रदेशों में प्रचलित था । से वर्षा योग धारण करने से नन्दी संघ हुआ। इसके प्रथमा- प्रसिद्ध इतिहासज्ञ फरगुसन साहब ने तो चतुर्मुख मन्दिरो चार्य श्री माघनन्दी थे। तृतीय और चतुर्थ शताब्दी के को प्रधान जैन श्रेणी का कहा है। चतुर्मुख या नन्द्यान्त नामों में यशोनन्दी, जयनन्दी, कुमारनन्दी सर्वतोभद्र मन्दिरों की उत्पत्ति समवसरण से है। ऐसे मादि हैं।
उत्तरकालीन जैन मन्दिर अभी तक कई स्थानों मे उप
लब्ध हैं। विहार सोमपुर (पहाड़पुर) के इस विहार को वृहदाकार और
पहाड़पुर के इस विहार से जैन ताम्रशासन के प्रतिउन्नत वर्तमान अवस्था में पहुंचाने का श्रेय बौद्यधर्मपरायण रिक्त प्रक छोटी सी जिन मूर्ति (धातु की) उपलब्ध हुई पांच सम्राटों को है। इसके चारों ओर प्रायः दो सौ कमरे हैं। है जिसके उभय पक्ष में दो अस्पष्ट मूर्तियां यक्षों या अट्टालिका परिवप्ठित प्रागण का परिमाण ९२२४६१९ श्रावका का ह। महन्त भगवान एक कमलासन फूट है। भारतवर्ष में इतना बड़ा मठ कही भी नहीं मिला खड़गासन स स्थित है। यह प्रातमा गुप्त कालान मालूम है। इसकी लम्बाई उत्तर से दक्षिण ३६१ फुट और चौडाई होती है। ३१६ फुट है। मन्दिर के तीन खढ़ terraces हैं और अब महत्वपूर्ण पालोच्य ताम्र शासन ८ का परिचय पहिले और दूसरे खडों मे चैत्यागन (प्रदक्षिणामार्ग) है। प्रस्तुत किया जाता है :
जिस प्रकार के नक्शे पर यह मूल मन्दिर निर्मित पहाड़पुर के प्रसिद्ध बौद्ध मन्दिर की खुदाई करते दृप्रा था, उस प्रकार का अन्य उदाहरण अभी तक भार- समय सन् १९२७ म पुरातत्व विभाग क प. कार
समय सन् १९२७ में पुरातत्त्व विभाग के पं. काशीनाथ तीय पुरातत्व को उपलब्ध नही हुमा है और न प्राचीन
नारायण को गुप्त सवत् १५९ (सन् ४७६) का यह ताम्रबौद्ध स्तूपों से इसका विकास ही माना जा सकता है। पत्र मिला था। प्रधान मन्दिर के दूसरे खण्ड (Jetrace) अतएव वही सम्भव है कि इस स्थल पर ही था इसके की प्रदक्षिणा के उत्तर पूर्व के मार्ग की मृतिका और भग्न पनि निकट जनों का एक चतुर्मुख मन्दिर था इसकी पुष्टि - Arch. Survey of India Report 1927-28 यहां से उपलब्ध इस ताम्र शासन से भी होती है ।
P.38 भारतीय पुरातत्त्व विभाग के प्रसिस प्रत्लतत्त्वविद
७. Hist. of India Eastern Architet Vol. II ४. श्रुतावतार कथा श्लोक ८०-८७ ।
P. 28 ५. Memoris of A.S.I. No. 55 P.7
८. EPi. India Vol.XX P.P.59-64