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षटखएडागम-परिचय
बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री
प्रस्तुत ग्रन्थ 'षट्खण्ागम' नाम से प्रसिद्ध है। यद्यपि भारोपित करके ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की पचमी के इस नाम का निर्देश मूल ग्रन्थ मे कही पर भी उपलब्ध दिन चातुर्वण्य सघ के साथ उन पुस्तकोपकरणों से विधिनही होता है, तथापि उसके ऊपर 'धवला' टीका के रच- पूर्वक पूजा की थी। इसीसे उक्त पचमी तिथि 'श्रुतयिता प्राचार्य श्री वीरसेन स्वामी ने प्रकृत ग्रन्थ क पचमी' के रूप में प्रसिद्ध हुई। अाज भी जैन जन उक्त अन्तर्गत कृति-अनुयोगद्वार में उसका कुछ संकेत किया तिथि पर श्रुत की पूजा करते है। है। यथा
अपने उपयुक्त नाम के अनुसार प्रस्तुत परमागम तदो भदबलिभडारएण सुदणाणपवाहवोच्छेदभीएण निम्न छह खण्डो में विभक्त है-१जीवस्थान, २ क्षुद्रकभवियलोगाणुग्गहठ्ठ महाकम्मपडिपाहडमुवसहरिऊण बन्ध, बन्धस्वामित्वविचय, ४ वेदना, ५ वगणा पोर महा'छखडाणि' कयाणि। धवला पु० ६ पृ० १३३ बन्ध३ । अर्थात् भूतबलि भट्टारक ने श्रीधरसनाचाय स महा
प्रन्थ-प्रमाण कर्मप्रकृति-प्राभूत प्राप्त करके प्राग श्रुतज्ञान के प्रवाह के प्राचाय इन्द्रनन्दी के उल्लेखानुसार प्रकृत परमागम नष्ट हो जाने के भय से भव्य जीवो के अनुग्रहार्थ उक्त के अन्तर्गत जीवस्थान प्रादि प्रथम पाच खण्टो का प्रमाण महाकमप्रभूतिप्राभूत का उपसहार करके छह खण्ड किये -
२, प्राद्य जीवस्थानं क्षल्लकबन्धाह्वय द्वितीयमतः । -षट्खण्डागम के रूप में परिणत किया।
बन्धस्वामित्व भाववेदना-वर्गणारखण्डे ।। वीरसेन स्वामी के शिष्य भाचाय जिनसेन स्वामी न
एव षट्खण्डागमरचना प्रविधाय भूतबल्यार्यः । भी इसका सकेत अपनी 'जयधवला' टीका की प्रशस्ति मे
प्रागेप्यासदभावस्थापनया पुस्तकेषु ततः ॥ किया है। वहां उन्होने इस षट्खण्डागम परमागम को
जेष्ठसितपक्षपञ्चम्यां चातुर्वर्ण्यसघसमवेतः । छह खण्डस्वरूप भरत क्षेत्रकी उपमा देकर उसके विषय मे
तत्पुस्तकोपकरणव्यंधात् क्रियापूर्वकं पूजाम् ॥ भरतचक्रवर्ती की आज्ञा के ममान प्राचार्य वीरसेन की
थतपञ्चमीति तेन प्रख्याति तिथिरिय परामाप । भारती को-धवला टीकास्वरूप वाणी को-अबाध बत
अद्यापि येन तस्या श्रुतपजां कुर्वते जैनाः ॥ लाया है।
इन्द्र०श्रृता० १४१-१४४ इसके अतिरिक्त प्राचार्य इन्द्रनन्दी ने तो अपने
इनके अतिरिक्त श्लोक १३४, १३७, १४६ पोर श्रुतावतार में अनेकों कार उपयुक्त नाम का उल्लेख किया
१४६ भी द्रष्टव्य हैं। है। वे उसके सम्बन्ध में विशेष स्पष्टीकरण करते हए कहते हैं कि प्राचाय भूतबलि ने छठे खण्ड महाबन्ध के
३. इनमे से प्रारम्भ के जीवस्थानादि ५ खण्ड श्री सेठ
शितावराय लक्ष्मीचन्द जैन साहित्योबारक फण्ड साथ जीवस्थान, क्षुल्लकबन्ध, बन्धस्वामित्व, भाववेदना
कार्यालय से क्रमश. १-६,७,८, ६-१२, १३-१६, इस पौर वर्गणा खण्डोंस्वरूप 'षट्खण्डागम' की रचना करके
प्रकार १६ जिल्दो मे धवला टीका के साथ प्रकाशित व उसे पसद्भावस्वरूप स्थापनानिक्षेप से पुस्तको मे
हो चुके हैं । मन्तिम खण्ड महाबन्ध मूल रूपमे हिन्दी १. प्रोणितप्राणिसम्पत्ति राक्रान्ताशेषगोगरा।
अनुवाद के साथ भारतीय ज्ञानपीठ काशी द्वारा ७ भारती भारतीवाज्ञा षट्खण्ड यस्य नास्खलत् ।। जिल्दों मे अलग से प्रकाशित हुमा है।