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घटनण्डागम-परिचय
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स्थान में प्रदुम मादेश१ । जैसे-कादूण (, २.४.७०) नारकियों के लिए 'उम्पट्टिदसमाणा' व 'पागच्छति'। गंतूण (३, २२)
(सूत्र १, ६-१,७६ आदि)। ४. इदानीम् के स्थान में दाणि२ । जैसे-इवाणि __तिर्यचो व मनुष्यों के लिए 'कालगदसमाणा' व (१, ६-३, १)।
'गच्छंति' (१,६-६.१०१ और १४१ आदि)। १. भविष्यत् अर्थ मे स्मि३ । जैसे-वणइस्सामो
देव सामान्य, भवनत्रिक और सौधर्म-ऐशान कल्पवासी (१, ६-६, २); णिल्लेविहिदि (४, २-४, ४६)।
देवो के लिए 'उव्वट्टिद-चुदसमाणा' व पागच्छति'६ (१, इस प्रकार चूकि प्रस्तुत ग्रन्थ की भाषा में शौरमेनी
धादि।। के कुछ लक्षण तो उपलब्ध होते है और कुछ नही भी
सानत्कुमार आदि देवों के लिए 'चुदसमाणा' व उपलब्ध होते हैं, अतएव उसे जैन शौरसेनी प्राकृत कहा
___ 'पागच्छति'७ (१, ६-६, १६१ प्रादि)। जा सकता है। वह जहां अर्धमागधी से प्रभावित है वहाँ उसमें महाराष्ट्री के भी बहुत से लक्षण उपलब्ध
द्वादशांग से उसका सीधा सम्बन्ध होते हैं । पर महाराष्ट्री शौरसेनी से प्राचीन नहीं है, प्रतः धवलाकार श्री वीरसेन स्वामी ने प्रस्तुत ग्रन्थ का द्वादउस शौरसेनी का प्रभाव ही महाराष्ट्री पर समझना शाग से सीधा सम्बन्ध बतलाते हुए७ प्रथमतः प्रमाण, नय चाहिए।
पौर निक्षेप आदि के कथनपूर्वक समस्त श्रुत का विस्तार से कुछ विशिष्ट शब्दों का उपयोग
परिचय कराया है। उन्होंने वहाँ बतलाया है कि बारहवें जिस समय प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना हुई उस समय व
दृष्टिवाद नामक अग के पांच भेदो मे चौथा भेद पूर्वगत उसके पूर्व भी यथास्थान कुछ विशिष्ट शब्दो का ही उप
है। वह उत्पादपूर्व मादि के भेद से चौदह प्रकार का योग होता रहा है। यह पद्धति प्रस्तुत ग्रन्थ में भी देखी
है। उनमें से प्रकृत मे दूसरा अग्रायणीय पूर्व विवक्षित जाती है । जैसे-तत्त्वार्थमूत्र आदि ग्रन्थो मे जहाँ इन्द्रिय व
के अन्तर्गत सत्प्ररूपणा व द्रव्यप्रमाणादि अनुयोगमन के निमित्त से होने वाले ज्ञान के लिए 'मति' शब्द
द्वारों का अनुवाद ही समझना चाहिए । नन्दिसूत्र का प्रयोग हुमा है वहाँ प्रस्तुत ग्रन्थ में उसके लिए सर्वत्र
मादि पागम ग्रन्थों में भी यही आभिनिबोधिक शब्द 'माभिणिबोहिय-'माभिनिबोधिक' शब्द का ही उपयोग
उपलब्ध होता है। किया गया है। विपरीत ज्ञानी के लिए जैसे मति
इम विशेषता को स्वयं सूत्रकार ने ही निम्न सूत्र के अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी शब्दो का उपयोग हुपा है वैस
द्वारा व्यक्त किया है--सणक्कुमारप्पहुडि जाव सदरअवधि-प्रज्ञानी शब्द का उपयोग नही हुआ, किन्तु उसके
सहस्मारकप्पवासियदेवेसु पढमपुढवीभंगो णवरि चुदात्ति स्थान मे सर्वत्र विभगज्ञानी (विहगणाणी) शब्द का ही
भाणिदव्यं । १,६-६, १६१। उपयोग हुआ है।
ऐसी ही कुछ विशेषता वर्तमान में भी कहीं-कहीं पर जीव जब एक गति से निकल कर-मर कर-दूसरी
पाई जाती है । जैसे-जब कोई मराठीभाषी किसी गति मे जाता है तब गति विशेष के अनुसार उसके लिए
से मिल कर वापिस जाना चाहता है तब वह 'वर मी निम्न शब्दों के प्रयोग की परिपाटी रही है५
येतो' (अच्छा मैं पाता हूँ)' कहता है-'मी जातो' १. कृ-गमोर्डदुषः । प्रा० श. ३, २,१०।
ऐसा नही बोलता। २. इदानीमोल्दाणि । प्रा० श० ३, २, ११ ।
___'राम' नाम यद्यपि उत्तम समझा जाता है, पर ३. भविष्यति स्सिः। प्रा० श० ३, २, २४ ।
विवाहादि मांगलिक कार्य के समय 'राम नाम' सत्य ४. यद्यपि 'सत्संख्या-' (तत्त्वार्थसूत्र १-८) आदि है, कहना अनिष्ट माना जाता है।
सूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका मे 'पाभिनिबोधिक' शब्द ७. संपहि जीवदारणस्स अबयारो उच्चदे। त जहा"""" का उपयोग देखा जाता है, पर उसे प्रस्तुत ग्रन्थ धवला पु० १, पृ०७२ ।