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अनेकान्त
करणकृति के मूल और उत्तर करणकृति रूप दो भेदों का झना चाहिये । परन्तु वह मुद्रण के समय टीका का अंश बन निर्देश करके उनमे से मूलकरणकृति के प्रौदारिक- गया है। किन्तु सूत्र ६५ की और इसकी शब्दरचना शगैर प्रादि रूप ५ भेदों का उल्लेख किया गया है। को देखते हुए इसके सूत्र होने में कुछ भी सन्देह नही रहता। तत्पश्चात सूत्र ६६ में प्रौदारिक-शरीर प्रादि ३ मूल. ३. इस प्रकार यदि यह (११८) सूत्र रहा है तो फिर करणकृतियों में से प्रत्येक के संघातनादिरूप ३-३ और 'एत्तो जहण्णमो चउसपिदियो...' आदि (१९८) सूत्र सूत्र ७० मे तेजसशरीर और कार्मणशरीर इन दो मूल- के साथ सूत्र १७४ के पश्चात् जो 'एव जहण्णयं चउमट्टिकरणकृतियों में से प्रत्येक के २-२ भेद निर्दिष्ट किये गये पदियं परत्थाणप्पाबहुग समत्त' वाक्य (पृ. ७५) प्राया हैं। इस प्रकार इन ३ सूत्रों द्वारा मूलकरणकृति के
है उसके भी सूत्र होने की सम्भावना की जा सकती है। क्रमश: ३+३+३+२+२%१३ भेदो की मात्र सत्प्ररूपणा
परन्तु शब्दरचना कुछ वैसी नहीं है, यह सुनिश्चित है। की गई है। इस पर धवलाकार ने 'एदेहि सुत्तेहि...'मादि
प्रकृति-अनुयोगद्वार मे सूत्र २२-३५ मे प्राभिनिदोउपयुक्त वाक्य के द्वारा यह कहा है कि सूत्रकार ने इन
धिकज्ञानरवरणीय के भेद-प्रभेदो का निर्देश कर देने के सूत्रों के द्वारा केवल १३ मूलकरणकृतियों की सत्प्र
पश्चात् दो सूत्र इस प्रकार प्राप्त होते हैंरूपणा मात्र की है। इस सूत्र के देशामर्शक होने से यहां
तस्सेव प्राभिणिबोहियणाणावरणीयस्म कम्मस्स धवला टीका में-उसके द्वारा सुचित पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की जाती है।
अण्णा परूवणा कायब्वा भवदि ॥३६॥ पु० १३ पृ० २४१
एवमाभिणिबोहियणाणावरणीयस्स कम्मस्म अण्ण। २. वेदनाभावविधान में 'एत्तो उक्कस्सयो चउ
परूवणा कदा होदि ॥४२॥ पृ०२४४ सपिदियो महादडग्रो कायदेवो भवदि ॥६५॥' इस सूत्र
इन दोनो सूत्रो और उनकी रचनापद्धति को देखते द्वारा (पु. १२ पृ० ४४) चौंसठ पद वाले उत्कृष्ट महा
हुए पूर्वोक्त 'एवमुक्कस्मयो.. ' प्रादि वाक्याशके सूत्र दण्डक के कहने की सूचना करके तदनुसार आगे सूत्रकार
होने की कल्पना और भी बलवती होती है । ने उक्त महादण्डक की प्ररूपणा ६६.११७ सूत्रों मे (पृ.
४. बन्धन अनुयोगद्वार (पु० १४) मे यह सूत्र मुद्रित ४४-५९) की है। तत्पश्चात् 'एवमुक्कसनो चउसद्विपदियो महादडो कदो भवदि' यह अश आया है, जिसे मूत्र ही सम
एतो उवरिमगंथो चुलिया णाम ॥५८१॥ १. मूल-सूत्रकार ने इन सूत्रो मे केवल करणकृति के
परन्तु यह मूत्र न होकर निश्चित ही टीका का अश प्रतीत भेद-प्रभेदों का ही निर्देश किया है, जिसे सत्प्ररूपणा
होता है। इसका कारण यह है कि जिन जिन अनुयोगके अन्तर्गत ममझना चाहिये-उन्होने स्पष्टतया
द्वारों में इस प्रकार के चलिका प्रकरण पाये हैं उनमे कही सत्प्ररूपणा का भी कोई निर्देश नहीं किया।
भी ऐसा सूत्र उपलब्ध नही होता२ । प्रकृत मे सूत्र ११७ २. तदनुसार ही धवलाकार ने चूंकि पदमीमासा प्रादि --
इन तीन अधिकारों के विना प्रकृत सत्प्ररूपणा भी १. यहां यह पाशका नही की जा सकती है कि 'एत्तो सम्भव नहीं थी, प्रतएव सर्वप्रथम पृ० ३२६ से ३५४ उक्कस्सयोपादि भी मूत्र (६५) नही है; क्योकि, तक इन तीन अधिकारी की प्ररूपणा की है। धवलाकार ने उसकी उत्थानिका मे '.."प्रत्थपरूतत्पश्चात् उन्होने 'सपधि एत्थ प्रणियोगद्दाराणि वणट्ठमुवरिमसुत्तं भणदि' कहकर उसे स्पष्टतया सूत्र देसामासियसुत्तसूइदाणि भणिस्सामो' ऐसी सूचना बतलाया है (पु० १२ पृ० ४४)। करके पृ० ३५४ से ३५६ तक प्रथमतः स्वयं २. देखिये जीवस्थान-चूलिका (पु. ६), द्रव्यविधानसत्प्ररूणा की है, पश्चात् क्रम से द्रव्यप्रमाणानुगम चलिका (पु० १० १० ३६५) कालविधान-चूलिका आदि शेष ७ अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा विस्तार- (पु० ११ १.० १४० व २४१) तथा भावविधानपूर्वक पृ० ४५० तक की है।
चूलिका (पु. १२ पृ.७८, ८७ व २४१)।
हुया है