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प्राकृत वैयाकरणों की पापवाल्यशाला का विहंगावलोकन
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प्रथम तीन मध्यायों तथा चौधे के २५६ सूत्र तक जो वतः १२वी सदा का प्रथम अर्धभाग) कृत 'वाग्भट्टालंकार' भाषा प्रयुक्त की है वह स्पष्ट रूप से महाराष्ट्री है। पर के टीकाकार सिंहदेव गणिनामक जैन साधु ने रितीय यहाँ जो भाषा प्रयुक्त की है वह प्राकृत से भिन्न है जैसे प्रध्याय के २-३ छदों की टीका करते हुए प्राकृत के कुछ अथ प्राकृतम् (८.१.१) शेषम् प्राकृतवत् (८.४.२८६) नियमों का उल्लेख किया है और खासतौर से शौरसेनी इत्यादि । डा. पिशेल१ का अभिमत है कि मा हेमचन्द्र मागधी, पैशाची और अपभ्रंश के नियमों का सोदाहरण ने जैन महाराष्ट्री का भी उल्लेख किया है और कही-कही उल्लेख किया है। प्रत. ऐमा प्रतीत होता है कि इन जैन शौरसेनी का भी, पर कहीं भी इन दोनों देशी देशी भाषामों का वर्णन करते हुए सिंहदेव गणि ने भापामों में स्पष्ट से अन्तर नही दिखाया है। देशी शब्दो निस्सदेह हेमचन्द्र के सूत्रों का उमी तरह प्रयोग किया के लिए प्रा. हेमचन्द्र की 'देशी नाममाला' प्रकारादिक्रम है जैसा कि आचार्य ने लिखा है। अतः सिंहदेवगण मे पाठ वर्गों में विभाजित है जो उल्लेखनीय है२ । भाषा- की टीका में कोई उल्लेखनीय बात नही दिखाई देती है। शास्त्र की दृष्टि से मा० हेमचन्द्र पश्चिमी शाखा के त्रिविक्रम५ ( १२३६-१३०० ई.) मल्लिनाथ के सर्वाधिक प्रामाणिक, अधिकार पूर्ण एवं प्रतिनिधि प्राचीन पुत्र और प्रादित्य वर्मन के पौत्र थे। उन्होने पानी प्राकृत विद्वान है३ । प्रा. हेमचन्द्र का प्रत्यक्ष रूप से सीधे व्याकरण बाल्मीकि मूत्रों से भिन्न मुत्रों में रची हैं (डा. किमी ने अनुसरण किया हो ऐसा कुछ भी पता नही उपाध्ये इस मत को निरर्थक मानते है) त्रिविक्रम ने चलता है परन्तु इतना अवश्य है कि उनके उत्तराधिकारी निश्चय ही हेमचन्द्र का अनुकरण किया है तथा प्राकृत इम शाखा के प्राकृत वयाकरण थाड़ बहुत रूप स मा० (महाराष्ट्री यद्यपि नामोल्लेख नहीं किया है) और उसकी हेमचन्द्र के ऋणी अवश्य ही है। वाग्भट्ट प्रथम४ (सभ- देशी भाषापों औरती जी
देशी भाषामों शौरसेनी, मागधी, पैशाची, बुल्किा-पैशाची
और अपभ्रंश मादि का विवेचन किया है पर पा० हेम१. Ibid 36
चन्द्र की भाति 'मर्धमागधी' या 'पाप' शब्द का प्रयोग २. मा. हेमचन्द्र की देशीनाममाला प्र० भाग सपादक
नहीं किया है । अपभ्रंश मे त्रिविक्रम ने शायद संस्कृत पार० पिशेल (मूल व पालोवनात्मक नोट्स सहित)
छाया के कोई नवीनता नही प्रकट की है। निश्चय ही बम्बई १८८० । द्वि० प्रावृत्ति स. रामानुज स्वामी
कुछ थोड़े से उदाहरण छोड़कर शेष सभी उदाहरणों की भूमिका मालोचनात्मक नोट्स और शब्द सूची
नकल उन्होंने हेमचन्द्र से ही की हैं। त्रिविक्रम ने अपनी सहित पूना १९३८ । स. एम. डी. बनर्जी कल
--- -- कत्ता १९३१, संवेबरदास जैन गुजराती अनुवाद
५. मार. पिशेल Dr. Gram, PKTS. P. 27 Gram, महित तथा पी० एल वैद्य कृत हेमचन्द्र की देशीनाम
PKT. Spr. 38 T. K. लड्डू Prolegomena माला के अनुभव' ABORI VIII 1926-27 पृ० Zu Trivikrama Prakrit Grammatik, Halle ६३-७१ डा०मा० ने० उपाध्ये का देशीनाम माला 1912 अग्रेजी में अनूदित By श्री पी. ही रामानुज में कनडी शब्द ABORI XII 1931-32 p.
स्वामी ABORI X1930, P. 177-218, भट्टनाथ 274-84.
स्वामी कृत त्रिविक्रम मोर उनके अनुकार्य ZAXL. ३. देखो-C. Lessen, Institution etc. pp 9
P.219-223, डा०मा० ने उपाध्ये द्वारा लिखित F.F. R. Pischel. De, Gram, PKTS. P. 17
'त्रिविक्रम की तिथि पर नोट्' ABORI XIII Gram PKT. Spr. 36 Nitri Dolhi Les, 1932-33 P. 171-172 डा. उपाध्ये का मत है Gram PKTS. pp. 147-177.
कि त्रिविक्रम ने अपनी व्याकरण १२३६ ई. के बाद ४. वाग्भट्ट कृत वाग्भट्टालंकार की सिंहदेवगणि कृत लिखी और पी० एल.बंच १३वी सदी के अन्तिम
टीका-सं• केदारनाथ शास्त्री और ह्री. एल. अर्ष भाग मानते हैं, श्री निधि टोलची Les Gram, एस. पान्सीकर काव्यमाला ४८ तु.मावृत्ति १९१६ PKTS. P. 179-198.