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एक संस्मरण
म. ज्योतिप्रसाद जैन
मेरी पीढी. अपने किशोरकाल में समाज के निम्न महानगरी में कई दिवस पर्यन्त मनाया गया। अनेक किसानों त्यागियों एवं नेतामों से अत्यधिक प्रभावित रही प्रौढ जनाजैन विद्वानों ने उसमें भाग लिया। बाबूजी के है उनमें प्रमुख थे गुरुगोपालदास बरैया, ब. शीतल, संकेत पर मुलार साहब को 'प्राक्तन विद्याविचक्षण' वर्णीत्रय (पं. गणेशप्रसाद, पं. दीपचन्द और बाबा जैसी सार्थक उपाधि से विभूषित किया गया। इस महोभागीरथ), महात्मा भगवानदीन. पं. नाथूराम प्रेमी, त्सव की सफलता का प्रथ से अन्त तक सर्वाधिक श्रेय पं. जुगलकिशोर मुख्तार, वा० सूरजभान वकील, वैरि० बाबूजी को ही है । किन्तु वह इतने से ही सन्तुष्ट नहीं जगमन्धरलाल जैनी और बैरि० चम्पतराय। इनमें मे हुए। उन्होंने इसी उपलक्ष में वीरशासन संघ नाम से एक कई एक के साथ तो कोई सम्पर्क भी नहीं हो पाया, संस्थान की विशाल योजना बना डाली और उसके लिए शेष के साथ अल्पाधिक साक्षात् एवं परोक्ष सम्पर्क रहे। अपने वैयक्तिक प्रभाव एवं सम्पर्कों का लाभ उठाकर किन्तु सर्वाधिक सम्पर्क उनमें से केवल मुख्तार साहब के दम लाख रुपये के दान की स्वीकृति कुछ एक श्रोमानो से ही साथ रहा जो अब तक चला पा रहा है। वीरसेवा- प्राप्त करली। मन्दिर की सरसावा में स्थापना के बाद जब उन्होने
योजना बन गई, दान की स्वीकृतिएँ भी कुछ प्राप्त हो 'भनेकान्त' मासिक निकालना प्रारम्भ किया तो मैं प्रारम
गई, उसमें से दशमांश के लगभग शीघ्र ही नकद प्राप्त से ही उसका पाठक बना, उसके लिए अपने नगर से
भी हो गया था-ऐमा सुना गया था, और शेष के लिए महायतादि भिजवाने के भी प्रयत्न किये। मुख्तार साहब विस्वास था कि कार्य प्रारम्भ होते ही मिल जायेगा। प्रब की प्रेरणा से ही मैं उसके लिए लेख भी लिखने लगा।
प्रश्न था कि यह कार्य कहाँ और कैसे प्रारम्भ किया संभवनया प्रनेकान्त में प्रकाशित मेरे लेखों को देखकर
जाय । अनेक कारणों से, जिन में स्वयं की सुविधा भी ही स्व. बाबू छोटेलाल जी का ध्यान मेरी मोर प्राकष्ट
सम्मिलित थी, कार्य का प्रारम्भ कलकत्ता मे ही करना हुमा । मुख्तार साहब के वह मनन्य भक्त थे और वीर
निश्चित हुपा । दूसरा प्रश्न कार्यकर्ता का था। बहुत सेवामन्दिर के प्रवान स्तम्भ थे।
कुछ ऊहापोह करने के बाद बाबूजी और मुख्तार साहब यह मुख्तार साहब ही थे जिन्होंने वर्तमान युग में की दृष्टि मुझ पर पटकी-न जाने क्यों। मैं उस वीरशासन जयन्ति के मनाने का ॐ नमः एव प्रचार समय तक मेरठ से प्राकर लखनऊ में जम चका था। किया। मनेकान्त में कितने ही लेख लिखे और वीरसेवा- यहा कारोबार जमा लिया था, बच्चे छोटे-छोटे थे। बाबू मन्दिर में प्रतिवर्ष यह उत्सव मनाया जाने लगा । मुख्तार जी और मुख्तार साहब के स्नेह एवं प्राग्रहपूर्ण पत्र प्राने साहा की सतत् प्रेरणा के फलस्वरूप बा. छोटेलालजी ने लगे। युवावस्था थी, साहित्यिक एवं सामाजिक कार्य वीरशासन के साई-द्वि सहस्त्राब्द महोत्सव को एक बड़े करने का शौक था और ऐसे दो पादरणीय बुजर्गों का पैमाने पर मनाने की सुन्दर योजना बनाई और उसे स्नेहपूर्ण निरन्तर अनुरोष-ना नहीं कर सका, पौर सफल बनाने में जुट गये। १९४०ई० में वह महोत्सव अन्तत: एक दिन कलकत्ता जा पहुंचा। श्रावण शुक्ल प्रतिपदा के प्रातः शासन प्रवर्तन की पुण्य- हबड़ा स्टेशन पर प्रातः के समय गाड़ी पहुँची। स्थली विपुलाचल पर प्रारंभ होकर तदुपरान्त कलकत्ता सामान उतार कर प्लेटफार्म पर रक्खा और यह सोच भी