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न प्रतिमा लक्षण
पादलिप्तसूरि ने खण्डित, प्रतिमा के स्थान पर दूसरी निर्वस्त्र, श्रीवत्स लाच्छनयुक्त, लम्बहस्त तथा ध्यानस्थ प्रतिमा प्रतिष्ठित करने का विधान किया है। प्रवस्था में बताया गया है। जिनप्रतिमाएं केवल दो ___ भग्न प्रतिमानों के जीर्णोद्धार करने के सम्बन्ध में मासनों में बनाई जाती हैं, एक तो कायोत्सर्ग मासन या कुछ ग्रंथों में उल्लेख मिलते हैं। रूपमंडन (१२१२) ने खड्गासन और दूसरा पद्मासन जिसे कहीं-कहीं पर्यक धातु, रत्न और विलेप की प्रतिमाओं के अगभंग होने पर भासन भी कहा गया है। जयसेन, वसुनन्दी, प्राशाघर, उन्हें संस्कार योग्य बताया है, किन्तु काष्ठ पोर पाषाण नेमिचन्द्र, कुमुदचन्द्र, भद्राकलक प्रादि ग्रन्थकारों ने अपने की प्रतिमानों के भग्न होने पर उनके जीर्णोद्वार का अपने प्रतिष्ठाग्रन्थों में जिनप्रतिमा का विस्तार से निरूनिषेध किया है। ठवकर फेरु केवल धातु और लेप की पण विया है। जयसेन के प्रतिष्ठापाठ में जिनविम्ब को प्रतिमानों के जीर्णोद्धार के पक्ष में हैं, वे रत्न, काष्ठ और शान्त, नासाग्रदृष्टि, प्रशस्त मानोन्मान युक्त, भ्यानारूढ़ पाषाण की प्रतिमानों को जीर्णोद्धार के लिए अयोग्य और किचित् नम्रग्रीवा बताया गया है। कार्योत्सर्ग पासन बताते हैं । वर्धमानसूरि ने धातु और लेपमय प्रतिमानों मे प्रतिमाके हाथ लम्बायमान रहते हैं और पपासन प्रतिमा ही का संस्कार किया जाना बताया है और लकड़ी तथा में बायें हाथ की हथेली पर दायें हाथ की हथेली रखी पाषाण की प्रतिमाओं को संस्कार के योग्य नही कहा है। नई होती है पादलिप्तसूरि ने निर्वाणकलिका में पाषाण की प्रतिमा को अगाध जल में प्रथवा उत्तुग पर्वतशिखर पर विजित
उन्ही प्राचार्य के अनुसार प्रतिमा उपयुक्त दो करने की विधि बताई है, किन्तु सुवर्ण बिम्ब को पूर्ववत्
प्रासनों को छोड कर अन्य किसी प्रासन में नहीं बनाई बनाकर पुन प्रतिष्ठेय कहा है४ ।
जाना चाहिए। प्रतिमा दिगम्बर हो, श्रीवृक्षयुक्त हो,
नख-केश विहीन हो, परमशांत हो, वृद्धत्व तथा बाल्य से जिनप्रतिमा का लक्षण
रहित हो, तरुण हो और वैराग्य गुण से भूषित हो। जन प्रतिष्ठाग्रन्थों के अलावा बृहत्संहिता, मानसार, समरांगण सूत्रधार, अपराजितप्रच्छा, देवतामूर्तिप्रकरण और
६. द्विभुज च द्विनेत्र च मुण्डतारं च शीर्षकम् ॥ रूपमंडन प्रादि ग्रन्थो मे भी जिनप्रतिमानों के लक्षण
ऋजुस्थानकसंयुक्तं तथा चासनमेव च । मिलते है । बृहत्संहिता में जिनेन्द्र की प्रतिमाएँ दिगम्बर, समाध्रिऋज्वाकारं स्याल्लम्बहस्तद्वयं तथा ।। प्रशान्तमूति, तरुण, रूपवान्, श्रीवत्स चिह्न युक्त और पासनं च दिपादौ च पद्मासन तु संयुतम् । धुटनों नक लम्बे बाहु वाली बताई गई हैं।
ऋजके च ऋजुभावं योग तत्परमात्मकम् ।। मानमार मे भी जिनप्रतिमाओं को प्राभरण वडीन, निराभरणसर्वाङ्ग निर्वस्त्राङ्ग मनोहरम् ।। १. निर्वाणकलि का, पत्र ३० जीर्णोद्धार प्रतिष्ठाविधि ।
सर्ववक्षस्थले हेमवर्ण श्रीवत्सलांछनम् ॥
मानसार। २. धाउलेवा इबिबं विप्रलंग पूण वि कीरए सज्जं । कट्टरयण सेलमयं न पुणो सज्ज च कईयादि।
७. शात नासाग्रदृष्टि विमलगणगणजिमानं प्रशस्तवास्तुमारप्रकरण, २१४३
मानोन्मानं च वामे विधतकरवरकर नाम पदमासनस्थम् । ३. धातुलेप्यमय मर्व व्यड्ग सस्कारमर्हति ।
व्युत्सर्गालम्बिपाणिस्थलनिहितपदाभोजमोनम्रकम्बु । काष्ठपाषाणनिष्पन्न संस्काराहं पुननं हि ॥
ध्यानारूढ विदैन्य भजत मुनिजनानन्दकं जनबिम्बम् ।। प्राचारदिनकर, उदय ३३
प्रतिष्ठापाठ, ७० ४. निर्वाणकलिका पत्र ३१, जीर्णोद्धारप्रतिष्ठाविधि ८. सस्थानसुन्दरमनोहररूपमूर्ध्वप्रालबित हवसनं कम५. प्राजानुलम्बबाहुः श्रीवत्साङक. प्रशान्तमूर्तिश्च ।
लासन च । दिग्वासास्तरुणो रूपवांश्च कार्योऽहता देवः ।।
नान्यासनेन परिकल्पितमीशबिम्बमहाविधौ प्रथितप्रतिमालक्षणाध्याय, ४५
मार्यमतिप्रपन्नः ॥