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ठीक नहीं है, मुझे तो यहाँ कुछ होता जाता दिखाई उन्होंने बहुत कुछ कराया है। नहीं देता, बाबूजी से काफी चचा हुई, वह भी विवश हा उपरोक्त घटना के पश्चात लगभग दो वर्ष तो उनका
प्रतएव मैं कलकत्ता से विदा लेकर अपने घर माया। मेरे विषय मे मौन रहा, उसके उपरान्त फिर पत्र पाने
इस प्रवास में मैं बाबू छोटेलालजी के पर्याप्त निकट जाने लगे जिनमें वही पूर्ववत् स्नेह था। उनके साथ सम्पर्क में पाया, उनके स्वभाव और व्यक्तित्व को पर- अन्तिम भेंट दिसम्बर सन् १९६३ में पारा में सिद्धान्त खने का भी अवसर मिला । समाज के उत्थान और जैन भवन की हीरक जयन्ती पर हुई-उस प्रायोजन के वह संस्कृति की प्रभावना उनके मन की चीज थी, उसके लिए. स्वागताध्यक्ष थे। बड़े प्रेम से मिले । गत वर्ष जब उनके कुछ भी करने का अवसर मिले सदैव तत्पर रहते थे। अभिनन्दन समारोह के मनाये जाने के समाचार मिले तो विद्वानों के लिए उनके हृदय मे सहज वात्सल्य एव पादर- बड़ा हर्ष हुमा-उनके अभिनन्दन ग्रन्थ के लिए दो लेख भाव था। लेखकों, साहित्यिकों तथा अन्य कार्यकर्तामो भी भेजे । किन्तु उनके जीवन में उनका वह अभिनन्दन को प्रेरणा एव प्रोत्साहन देने में कभी पीछे नहीं रहे, समारोह न हो सका शायद, अब वह स्मृति ग्रन्थ के रूप दूसरी पोर अपने धनी मित्रो को भी समाज एव सस्कृति मे प्रगट हो । जीवन की नश्वरता पर लोकहित, समाजके हित मे द्रव्य लगाने की प्रेरणा दो मे मोर भी अधिक हित, अथवा संस्कृति के हित में की गई सेवाएं ही विजपटु थे। स्वयं जो कुछ कर सके उसके अतिरिक्त दूसरों से यिनी होती हैं।
संस्मरण
होरालाल सिद्धान्त शास्त्री यों तो मैं श्रीमान बा. छोटेनालजी से अनेकान्त के की कोई व्यवस्था अवश्य करूंगा। इसके पश्चात् उन्होने जन्म-काल से ही परिचित था, परन्तु प्रत्यक्ष भेट का अव- प्राचार्य श्री जुगलकिशोरजी मुख्तार साहब से उक्त दोनों सर मिला मुझे उस समय, जबकि मैं वीर-सेवा-मन्दिर में ग्रन्थो के प्रकाशन के सम्बन्ध में विचार-विमर्श किया। नियक्त होकर पाया और वह हिसा-मन्दिर में स्थान मुख्तार साहब ने कहा कि ये दोनों ही ग्रन्थ प्रकाशन के पाकर अपना कार्य कर रहा था।
योग्य हैं और वीरसेवा मन्दिर इन्हें प्रकाशन करने मे बात सन् १९५४ के प्रारम्भ की है, वीरसेवामन्दिर अपना गौरव अनुभब करता। किन्तु इस समय दिल्ली मे के लिए जमीन खरीदने के निमित्त वे दिल्ली पाये हुए थे वीरसेवा मन्दिर के निजी भवन के निर्माण का प्रश्न सामने और अहिंसा-मन्दिर में ही ठहरे हुए थे । एक दिन अवसर है, पाथिक समस्या है, इसलिये वह तो इनके प्रकाशन के पाकर मैंने उनसे सिद्धान्त-ग्रन्थों के मूलरूप के प्रकाशन- लिए इस समय असमर्थ है। आप इन्हें अपने वीरशासन के सम्बन्ध में चर्चा की और सानुवाद षट्खण्डागम सूत्र संघ कलकत्ता से क्यों न प्रकाशित कीजिए? मुख्तार सा० और कषायपाहड सूत्र की प्रेस कापी उन्हें दिखायी, साथ का परामर्श उनके हृदय में घर कर गया और उन्होंने ही इन ग्रन्थों के प्रकाशन-सम्पादनादि से सम्बन्धित सभी दोनों ग्रन्थों मे से पहले कसापपाहुडसुत्त का प्रकाशन अपने बातें उन्हें सुनाई। सुनकर और सम्मुख उपस्थित सर्व. संघ से करने का निश्चय किया। फलस्वरूप उक्त ग्रन्थसामग्री देखकर आश्चर्यचकित होकर बोले-मैं तो अभी राज सन् १९५५ मे वीरशासन सघ कलकत्ता से प्रकाशित तक बिल्कुल अंधेरे में था, माज यथार्थ बात ज्ञात हुई है। होकर समाज के सामने पाया। इसके प्रकाशन को रोकने इन दोनों प्रग्यों के मूलरूप को शीघ्र से शीघ्र प्रकाशन के लिए विरोधियों ने कोई कोर-कसर उठा न रक्खी.