________________
यथास्थान सुरक्षित रखाकर ६ बजे वापिस लालमन्दिर याद पा रहे हैं, जहां पर कि उनके साथ मुझे दिल्ली या माते । भोजन कर मुख्तार साहब से जरूरी परामर्श करते कलकत्ता के अनेक ख्याति प्राप्त विद्वानों, श्रीमानों एवं और एक बार फिर दरियागंज का चक्कर लगा पाते। अन्य विशिष्ट व्यक्तियों के पास आने-जाने का प्रसंग पाया इस प्रकार दिल्ली की मई-जून की गर्मी भर के पूरे दिन . और उन्होंने जिन शब्दों के द्वारा मेरा परिचय सामने तपस्या करते रहे । यहा यह उल्लेखनीय है कि वीरसेवा- वालों को कराया, उन्हें सुनकर मैं स्वयं लज्जा और मन्दिर में काम करने वाले हम लोग लालमन्दिर के नीचे सकोच का अनुभव करने लगता था, पर वे प्रशंसा के पुल के हाल मे खस के पर्दे लगाकर दोपहरी में पाराम करते बांधते न थकते थे । सन् १९५४ के पर्युषणपर्व पर मुझे रहते थे और हम लोगों को यह पता भी नहीं चलता था कलकता शास्त्र-प्रवचनार्थ जाने का अवसर प्राया। वे कि बाबजी कब पाये और रोटी खाकर वापिस दरियागंज कार लेकर लेने को स्वयं ही स्टेशन पहचे और अपने ही काम की देखरेख को कब चले गये । कोई धनिक व्यक्ति निवास स्थान पर ठहराया । दोनों समय वेलगछिया मंदिर निजी मकान बनवाने में भी इतना श्रम नहीं करता, में ही शास्त्र-प्रवचन करता था। वे बराबर पूरे समय तक जितना उन्होने वीरसेवा मन्दिर के भवन-निर्माण के लिए चुपचाप मेरा प्रवचन अांख बन्द किये सुनते रहते । मैं तो किया।
समझता कि रात को खांसी की पीड़ा से नींद न पाने के ___ महीनों बाबूजी के साथ रहने का तथा उनकी देख- कारण बाबू जी झपकी ले रहे हैं, पर घर पाने पर जब वे रेख में काम करने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ है और कहते कि पं० जी आज मापने अमुक बात बहुत अच्छी पत्र-व्यवहार तो पूरे बारह वर्ष तक (मरण से २ मास या नवीन वात कही है, तब मेरा भ्रम दूर होता और पूर्व तक) चालू रहा । इस लम्बे समय में अनेको प्रकार जान होता कि वे ग्राख बन्द किये बैठे रहने पर भी से मुझे उनके अन्तरंग और बहिरंग रूप को देखने और प्रत्येक शब्द कितने जागरूक होकर सुना करते थे। माने. परखने का अवसर मिला है। यहां यह सम्भव नही कि जाने वाले व्यक्ति के सुख-दुख, खान-पान मादि का बे उन सब का उग्लेख कर सकू। पर इतना पाजतक के कितना ध्यान रखते थे, यह प्रत्येक परिचय में मानेवाला अनुभव के आधार पर निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि व्यक्ति जानता है । पत्रों द्वारा वे कितना प्रोत्साहन देते ये हृदय के अत्यन्त स्वच्छ और सरल थे। सामने प्राये रहते थे, यह सब को ज्ञात है। मेरे पास उनके एगभग हए व्यक्ति के मनोगत भावों को पढ़ने और समझने को १५० पत्र मुरक्षित हैं और अनेकों शिलालेख मादि वाले उनमें पदभुत-विलक्षण शक्ति थी और वे मनुष्य रूपी कागजात भी, जिनता कि वे मेरे द्वारा सम्पादन चाहते हीरों के पारखी सच्चे जौहरी थे। परिचय में पाने वाले थे। माज उन सब बातों की याद करके मांखों में आंसू व्यक्ति के विशिष्ट गुणों पर उनकी दृष्टि जाती पोर पा रहे हैं कि ऐसा प्रेरणा देने वाला व्यक्ति स्वयं ही उसकी प्रशंसा करते नहीं अघाते । मुझे ऐसे अनेकों अवसर स्मरणीय बन गया है।
विनम्र श्रद्धांजलि
कपूरचन्द वरैया मैं सदैव ही भाद्रपद मास में पयूषण पर्व पर पूज्य जयन्ती' में सम्मिलित होने का सुअवसर प्राप्त हमा। वर्णीजी के पास पहुँचता था। उन दिनों पू० वर्णीजी का जयन्त्युत्सव में शामिल होने का प्रमुख पाकर्षण था स्थायी मुकाम 'जैन उदासीनाश्रम, ईसरी' में ही निश्चित कलकत्ता के साहू शातिप्रसाद जी जैन की अध्यक्षता तथा हो गया था। प्रति वर्ष 'वर्गी-जयन्ति-समारोह' वहां बा. छोटेलालजी की देख-रेख मे पाश्रम को सुव्यवस्था। मनाया जाता था; किन्तु एक बार मुझे भी उनकी 'जन्म- बाबूजी एक सप्ताह पहले पाश्रम में मा गये थे और