________________
भनेकान्त पौर बीरसेवामन्दिर के प्रेमी श्री बाबू छोटेलालजी
१५३
रहते थे और उसके प्राप्त होते ही स्वस्थ हों या अस्वस्थ प्रवलर व्यर्थ नहीं जाने देते। इस संस्था को स्थापित उस बड़ी रुचि तथा चाव से आद्योपान्त पढ़ा करते थे। करने के कोई एक साल बाद जब मैं कलकत्ता गया तो अनेकान्त से और उसके कारण मुझसे वे कितना प्रेम प्रापने साहू शान्तिप्रसाद जी जैन रईस नजीबाबाद से
स उनक २१ अगस्त १९२९ क पास कुछ मुझे तीन हजार ३०००) रु० की सहायता का वचन जाना जा सकता है, जिसे अनेकान्त वर्ष २ की १२वी लावली'माही यारी के लिए दिलाय किरण में सम्पादकीय वक्तव्य के साथ प्रकाशित किया
मेरे बिना कुछ कहे ही चलते समय चुपके से ही ३००) गया था। उसके कुछ प्रशों को यहाँ उद्धृत कर देना तीन सौ रु. औषधालय तया फरनीचर के लिए भंट उचित जान पड़ता है .
किये । आप बीरसेवामन्दिर को बहुत बड़ी चिरस्मरणीय __"मेरे तुच्छ हृदय मे आपके प्रति कितनी श्रद्धा है
सहायता करना चाहते थे परन्तु देवयोग से वह सुयोग यह मैं अभी तक प्रत्यक्ष न कर सका हूँ। मापने जैन
हाथ से निकल गया, जिसका आपको बहुत खेद हुआ। समाज को जो कुछ प्रदान किया है उसका बदला तो
कयाह उसका बदला ता बाद को मापने ५००) अपने भतीजे चि. चिरंजीलाल यह जैन समाज न चुका सकेगी, पर भावी जैन समाज के प्रारोग्य लाभ की खुशी में भेजे, १००) 6. अपने अवश्य ही कृतज्ञता प्रकट करेगी। साहित्यिक अनुसन्धान मित्र बा० रत्नलालजी झांझरी से लेकर भेजें, २००) रु. कार्य करने की शिक्षा विश्वविद्यालयो से प्राप्त करनी अपने छोटे भाई बा० नन्दलाल जी से और २००) रु. पडती है पर आपके अनेकान्त में प्रकाशित लेखों को अपनी पूज्य माता जी से दिलवाये । अपनी धर्म पत्नी के पढकर ही अनेक विद्वान माज अच्छे-अच्छे लेख लिखने स्वर्गारोहण से पूर्व किये गये दान में से पांच हजार ५०००) लगे हैं । अनेकान्त निकलने के पूर्व के लेख और तत्पश्चात रु. की बड़ी रकम इस सस्था के लिए निकाली। 'पनेके लेखों को यदि सामने रखकर तुलना की जाय तो यह कान्त' पत्र के लिए स्वयं १३५) रु. भेजे, २००) रु. स्पष्ट हो जायगा । आपकी कार्य प्रणाली में मौलिकता सेठ बैजनाथ सरावगी से दिलाये, और कलकत्ते के कितने है। इस प्रकार की विशेष बाते इस समय मैं लिखकर ही सज्जनों को स्वय पत्र लिखकर तथा साथ मे नमूने पापको कष्ट पहुँचाना नहीं चाहता हैं। पर तो भी इतना की कापियों भेजकर उन्हे अनेकान्त का ग्राहक बनाया। ही निवेदन है कि अभी प्रापसे बहुत कुछ लेना है।" इसके सिवाय गत मार्च मास में आपके जेष्ठ भ्राता बा.
सितम्बर १९४१ की अनेकान्त किरण ८ मे 'वीर फूलचन्द जी का स्वर्गवास हो गया था, उस अवसर पर सेवा मन्दिर के सच्चे सहायक' नाम से मैंने एक विज्ञप्ति सात हजार ७०००) रु० का जो दान निकाला गया था प्रकाशित की थी, जिससे वीरसेवा मन्दिर के बा० छोटे उसका स्वयं बटवारा करते हए हाल में १०००). लाल जो के तत्कालीन प्रेम, सहयोग और सहायतादि का वीरसेवामन्दिर को प्रदान किये हैं। ऐसे सच्चे सहायक कितना ही पता चलता है । अत: यहाँ उसे ज्यों का त्यों एवं उपकारी का आभार किन शब्दों में प्रकट किया उद्धृत किया जाता है .
जाय, यह मुझे कुछ भी समझ नहीं पड़ता। मेरा हृदय "श्रीमान् माननीय बा. छोटेलाल जी जैन कलकता ही सर्वतोभाव से उसका ठीक अनुभव करता हुमा आपके मेरी तुच्छ सेवाओं के प्रति बड़े ही प्रादर-सत्कार के भाव प्रति झुका हुमा है-शब्द उसके लिए पर्याप्त नहीं है, को लिए हुए हैं, यह बात 'अनेकान्त' के उन पाठकों से खासकर ऐसी हालत में जबकि प्राभार के प्रकटीकरण से छिपी नही है जिन्होंने प्रापके विशुद्ध हृदयोदगारों को प्रापको खुशी नहीं होती और अपने नाम तक से प्राप लिए हुए वह पत्र पढ़ा है जो द्वितीय वर्ष की १२वी दूर रहना चाहते हैं। मैंने भाई फूलचन्दजी का चित्र किरण के टाइटिल पेज पर मुद्रित हुमा है। यही कारण प्रकाशनार्थ भेजने को लिखा था, इसके उत्तर मे प्राप है कि पाप मेरी अन्तिम कृतिरूप इस वीरसेवामन्दिर' को लिखते है-'मुख्तार साहब, आप जानते है हम लोग बड़े प्रेम की दृष्टि से देखते हैं, उसके साथ पूर्ण सहानुभूति नाम से सदा दूर रहते हैं। चित्र तो उनका छपना । रखते हैं और उसको सहायता करने कराने का कोई भी चाहिए जो दान करें। हम लोग तो परिग्रह का प्राय