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अनेकान्त
लेंगे इस पर साहूजी ने अपनी सहर्ष स्वीकृति प्रदान की। उसे द्विमासिक के रूप में पुनः प्रकाशित कराया है, उसा इसके लिए साहजी से पतीस हजार रुपये प्राप्त हुए। के फलस्वरूप पाज यह विशेषांक पाठकों के सामने है। इस तरह दिल्ली में वीर-सेवा-मन्दिर भवन के
वीरसेवा मन्दिर के भवन का उद्घाटन हो जाने पर निर्माण में बाबू छोटेलाल जी का बहुत बडा हाथ रहा प.कैलाशवन्द जी शास्त्री ने जैन सन्देश मे उसका अभिहै, जिसे उन्होंने वीर-सेवा-मन्दिर ट्रस्ट के अध्यक्ष पद पर
नन्दन करते हुए एक टिप्पणी प्रकाशित की थी जिसका पासीन रहते हुए किया है। आपके और भाई नन्दलाल
ऐसा पाशय था कि वीरसेवा मन्दिर की बिल्डिंग तो खड़ा जी के प्रयत्न से ही सेठ मिश्रीलालजी काला की पांच
__हो गई परन्तु मुख्नार साहब (जुगलकिशोर जी) का कोई हजार की सहायता दस हजार के रूप में परिणित हुई
उत्तराधिकारी तैयार नही किया गया, इससे मुख्तार है। दूसरी मजिल का निर्माण प्रायः बाबू नन्दलालजी पौर सेठ मिश्रीलालजी की सहायता से ही हुआ है।
साहब के बाद सस्था मे कोई काम नहीं हो सकेगा और तीसरी मजिल के निर्माण में अधिष्ठाता वोर-सेवा-मदिर
केवल बिल्डिंग ही खडी रह जायगी, जिसका दुरुपयोग
होना अधिक सभव है। इस पर बा. छोटेलाल जी ट्रस्ट की खास प्रेरणा को पाकर बाबू रघुवरदयालजी
ने उत्तराधिकारी की तलाश के लिए पत्रो मे एक विज्ञप्ति जैन एम. ए. एल. एल. बी करोलबाग न्यू देहली ने तीन ।
प्रकाशित कराई थी और कुछ विद्वानो से पत्र व्यवहार हजार की और उनके समधी सेठ छदामीलालजी जैन
भी किया था, उस समय के वातावरण में मैंने बा० छोटे फिरोजाबाद ने चार हजार की सहायता प्रदान की है।
लाल जी को एक पत्र २१ अप्रैल १९५८ को लिखा था, शेष कुछ फुटकर सहायता भी उसक निर्माण में लगी है। इस भवन का उद्घाटन मुहूत भी श्रीमान साहू शान्ति
जिसके निम्न शब्द खास तौर से ध्यान में लेने योग्य हैप्रसादजी के कर कमलो द्वारा जुलाई १९५७ म श्रावण
"सस्था को मैंने जन्म दिया और अापने उसे सीचकृष्गा प्रतिपदा को सानन्द सम्पन्न हमा है। उत्सव से।
सिंचाकर तथा पालपोष कर बड़ा किया है. इसलिए अगले दिन बाबू छोटेलालजी साह शान्तिप्रसादजी से सस्था से जो प्रेम मुझे तथा प्रापको हो सकता है वह उनके निवास स्थान पर मिले और वीर-सेवा-मन्दिर की दूमरो को नहीं। इसी तरह सस्था की हानि से जो दुःख
आर्थिक स्थिति उनके सामने रखी और बतलाया कि कष्ट मुझे और पापको पहुँच सकता है वह तीसर को सस्था को १५ हजार की तत्काल प्रावश्यकता है । साहजी नहीं। मैं अब वृद्ध हो गया हूँ और इधर रुचि मे भारी ने १५ हजार की सहायता देना स्वीकार किया, जो बाद परिवर्तन हो गया है, इसीलिए सस्था की जिम्मेदारी को उनसे प्राप्त हो गई।
उठाने और उसका ठीक काम करने में असमर्थ बन गया ___इन सब बातों से स्पष्ट होता है कि बाबू छोटेलालजी हूँ। ऐसी स्थिति में स्वाभावत. पाप पर ही उसकी संभाल वीर-सेवा-मन्दिर से कितना अधिक प्रेम रखते थे, भवन और सचालन का सारा भार पा जाता है । फिर (मापने निर्माण का कार्य भी उन्होने कई महीने स्वयं खड़े होकर. तो कलकत्ता महोत्सव के अवसर पर) लगभग बीस तथा अपने स्वास्थ्य की बलि चढ़ाकर कराया है। हजार जनता की उपस्थिति में अपने को मेरा पुत्र घोषित अनेकान्त के साथ तो पापक। शुरू स ही गहरा प्रेम था, करते हुए निश्चित रूप से मेरा उत्तराधिकारी होने की जिसे कई बार अनेकान्त मे प्रकट किया जा चुका है। घोषणा भी की थी, जिस पर जनता ने भारी हर्ष व्यक्त मापने अनेकान्त का समय-समय पर स्वय सैकडो रुपये किया था। तब पत्रों में मेरा उत्तराधिकारी के लिए की सहापता ही प्रदान नहीं की बल्कि दूसरों से भी बहुत तलाश की विज्ञप्ति कैसी? मेरे उत्तराधिकारी प्राप कुछ सहायता दिलवाई है। पीछे चौदहवें वर्ष जुलाई हैं:-मैं बड़ी खुशी के साथ सस्था का उतराधिकार १९५७ के बाद से जब अनेकान्त का प्रकाशन कई वर्ष आपको सौपना चाहता हूँ, अतः उसको स्वीकार करने में तक बन्द रहा तब प्रापने ही सेठ मिश्रीलालजी प्रादि जरा भी मानाकानी नहीं करनी चाहिए-अपने प्रण कुछ सज्जनों का सहयोग प्राप्त करके अप्रैल १९६२ से तथा अपने वचन का भी पूरा ध्यान रखना चाहिए, एक
हा
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