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प्राकृत वैयाकरणों की पाश्चात्य शाखा का विहंगावलोकन
डा० सत्यरंजन बनर्जी
डा. ग्रियर्सन महोदय का विश्वास है कि प्राकृतभाषा निर्णय भले ही न हो परन्तु इससे डा. ग्रियर्सन के अभिके वैयाकरणो की पाश्चात्य शाखा प्रायः बाल्मीकि के मत में कोई परिवर्तन नहीं हो सकता है कि ये सूत्र प्राकृत तथाकथित सूत्रों पर आधारित है, जिन पर आगे चलकर व्याकरण के पाश्चात्य शाखा से सम्बन्धित हैं। त्रिविक्रम, सिहराज, लक्ष्मीधर, अप्पय दीक्षित, बाल
इस विवादास्पद बात को न भी माने तो भी प्राकृत सरस्वती एवं अन्य वैयाकरणो ने अपनी अपनी विधि से
व्याकरण की पश्चिमी शाखा के सर्वप्रथम वैयाकरण नमि प्राकृत व्याकरण सम्बन्धी शब्द एव मूत्र रचना कर टीका
साधु हैं जो प्रा. हेमचन्द्र की भांति जैन थे तथा तिथि क्रम टिप्पणी की थी। यद्यपि प्रा. हेमचन्द्र ने भी उन्हीं सूत्रों
मे वे प्रा. हेमचन्द्र से पूर्व हुए थे, क्योंकि रुद्रट के काव्याका अनुसरण किया, परन्तु उन्होने विभिन्न शब्दावली मे
लङ्कार की टीका उन्होने १०६६ ई० मे रची थी३, जैसा पृथक् मूत्रो से अपनी व्याकरण की रचना की थी।
कि उन्होंने काव्यालङ्कार की टीका के अन्तिम पद्य मे बाल्मीकि सूत्रो की प्रामाणिकता का प्रश्न अब तक निर्णीत
स्पष्ट लिखा है। यद्यपि नमि साधु कृत किसी प्राकृत नही हो मका है। डा० प्रा० ने० उपाध्ये का अभिमत है
व्याकरण का ज्ञान हमे नहीं है पर रुद्रट कृत काव्यालङ्कार कि उपर्युक्त सूत्र निश्चय ही त्रिविक्रम के है जिनकी वृत्ति
की टीका करते हुए उन्होने प्राकृत व्याकरण और विशेषउन्होने स्वय रची थी।
तया शौरसेनी, मागधी, पैशाची, अपभ्रश आदि भाषाओं बाल्मीकि सूत्रों के कृत्रित्व के सम्बन्ध में श्री नित्ति
के व्याकरण सम्बन्धी कुछ मूल तत्त्वों का संक्षिप्त उल्लेख डोलची का भी यही अभिमत है पर वे मानते है कि सभी
किया है५ । नमि साधु ने काव्यालंकार की टीका में जिन सूत्र सम्भवतः त्रिविक्रम के रचे हुए नही हैं२ । अस्तु जो
सूत्रो का उल्लेख किया है बे प्राय. पा. हेमचन्द्र के सूत्रों कुछ भी हो इन सूत्रो की रचना चाहे बाल्मीकि ने की
से मिलते जुलते है६ । अत: इन सूत्रो से प्रतीत होता है हो चाहे त्रिविक्रम ने परन्तु यह सुनिश्चित है कि ये सूत्र
कि नमि साधु ने पश्चिमी भारत में प्रचलित परम्परामों प्राकृत व्याकरण की पाश्चात्य शाखा में निर्धारित किये
का अनुसरण किया हो। जावेगे । अतः इन मूत्रों के कृतित्व की प्रामाणिकता का
३. रुद्रटकृत काव्यालंकार नमि साधुको टीका सहित १. Valmiki Sutra : A Myth B.V. (Vol. II
मम्पादक दुर्गाप्रसाद और पन्सीकर काव्यमाला Part 2) 1941 P.P. 160-172 and Vol. xv
२-३ श्रावृत्ति बम्बई १९२८ Part 3) 1956 F-P. 28-31. डा. उपाध्ये ने उपयुक्त समस्या पर बडी गम्भीरता ।
४. पंचविंशति संयुक्तः एकादश समाशतः (११२५)
विक्रमात् समातिक्रान्तः प्रावृषिदाम् समर्थितम् । पूर्वक विबेचन किया है और इस सिद्धान्त को निरर्थक सिद्ध किया है। श्री Hultzsch. श्री के. पी. त्रिवेदी,
(स० ११२५-१०६६ ई.) श्री टी. के. लड्डु, श्री नित्ति डोलची और प्राकृत
५. श्री नित्ति डोलचीने मूल काव्यालंकार रोमन लिपि मणिदीप के सम्पादक आदि ने भी इसी विषय पर
मे लिखा और फेंच अनुवाद भाषा मे है, देखो विस्तृत विवेचन किया है ।
Les. Gram. Pkts. p.p. 158-165. 2. Less. Gram. Pkts P.P, 179 F.F. ६. देखो Dolci Ibrd p.p. 165-169.