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बैन-र्शन और वान्त
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२. संग्रह-सत्ता की अपेक्षा से होने वाला विचार । मार्थिक सत्य नहीं हैं।
३. व्यवहार-व्यक्ति की अपेक्षा से होने वाला व्यावहारिक और प्रातिभासिक पदार्थ शिकालबाषित विचार।
नहीं होने के कारण पारमार्थिक सत्य नहीं है, किन्तु वे ४. ऋजुसूत्र-वर्तमान अवस्था की अपेक्षा से होने साकाश-कुसुम की भांति निरालय नहीं हैं, इसलिए सर्वथा वाला विचार ।
असत्य भी नहीं है। ५. शब्द-यथाकाल, यथाकारक शब्द प्रयोग की वेदान्त के अनुसार प्रज्ञान की दो शक्तियां हैंअपेक्षा से होने वाला विचार ।
१ प्रावरण-शक्ति। ६. समभिरूढ़-शब्द की उत्पत्ति के अनुरूप शब्द- २. विक्षेप-शक्ति । प्रयोग की अपेक्षा से होने वाला विचार ।
प्रावरण-शक्ति भेद-बुद्धि उत्पन्न करती है, इसलिए ७. एवम्भूत-व्यक्ति के कार्यानुरूप शब्द-प्रयोग की ससार का कारण है। इसी शक्ति के प्रभाव से मनुष्य मे अपेक्षा से होने वाला विचार ।
'मैं कर्ता हूँ', 'भोक्ता हूँ', 'सुखी हूँ', 'दुःखी हूँ'-मादिवस्तु विज्ञान की दृष्टि से वस्तु द्रव्य पर्यायात्मक है। आदि भावनाएँ उत्पन्न होती है। तमः प्रधान विशेष इसके आधार पर दो दृष्टिया बनती हैं
शक्ति युक्त तथा प्रज्ञान घटित चैतन्य से प्राकाश उत्पन्न १. निश्चय-द्रव्य सीनय ।
हुमा । माकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और २. व्यवहार-पर्याय या विस्तार सीनय । जल से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई। इन सूक्ष्म भूतों से सूक्ष्म
पहली अभेद प्रधान दृष्टि है और दूसरी भेदप्रधान । शरीर और स्थूल भूतों की उत्पत्ति हुई। यह विश्व न अभेदात्मक है और न भेदात्मक, किन्तु सूक्ष्म शरीर के सत्रह अवयव होते हैंउभयात्मक है।
पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ-श्रोत्रि, त्वक, चक्षु, जिह्वा, घाण । वेदान्त और विश्व
६ बुद्धि-अन्तःकरण की निश्चयात्मिका प्रवृत्ति । शकराचार्य के शब्दों में जो सदा समरूप होता है मन-अन्तःकरण की संकल्प विकल्पात्मिका वही सत्य है। विश्व के पदार्थ परिवर्तनशील हैं सदा प्रवृत्ति। समरूप नहीं है, इसलिए वे सत्य नही हैं । ब्रह्म सदा सम- १२ पाँच कर्मेन्द्रिया-वाक् पाणि, पाद, वायु, रूप है, तीनो कालों (भूत, वर्तमान और भविष्य) तथा उपस्थ । तीनों दशामो (जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति) में एक रूप १७ पांच वायु-प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान । हे इसलिए वह सत्य है। फलित की भाषा में ब्रह्म सत्य ज्ञानेन्द्रिय सहित बुद्धि को विज्ञानमय कोश कहा है, जगत् असत्य है।
जाता है। यही व्यावहारिक जीव है। ज्ञानेन्द्रिय सहित सत्य त्रिकालाबाधित होता है, इसलिए वह पारमार्थिक मन को मनोमय कोश कहा जाता है। कर्मेन्द्रिय सहित सत्ता है। प्रसत्य के दो रूप हैं
पांच वायुनों को प्राणमय कोश कहा जाता है। विज्ञान१. व्यावहारिक-नाम रूपात्मक बस्तुणों की सत्ता। मय कोश ज्ञान-शक्तिमान् है। वह कर्ता है। मनोमय २. प्रातिभासिक-रज्जु में सर्प की सत्ता ।
कोश इच्छाशक्ति रूप है। वह करण (साधन) है। प्राणजगत् के विकारात्मक परार्थ व्यवहार काल में सत्व मय कोश क्रिया-शक्तिमान है। वह कार्य है। इन तीन होते हैं, किन्तु वे ब्रह्मानुभव के द्वारा बाधित हो जाते हैं, कोशों का मिलित रूप सूक्ष्म शरीर है। इसलिए व्यावहारिक पदार्थ पारमार्थिक सत्य नहीं हैं। साधना-पथ
रज्जु-सर्प, शुक्ति-रजत भादि प्रतीतिकाल में सत्य वेदान्त के प्राचार्यों के अनुसार जीव में तीन प्रज्ञानप्रतिभासित होते हैं, किन्तु उत्तरकालीन ज्ञान के द्वारा गत शक्तियाँ होती हैं। प्रथम शक्ति से अभिभूत जीव वे बाधित हो जाते हैं, इसलिए प्रातिभासिक पदार्थ पार- प्रपंच को पारमाथिक मानता है। बेदान्त के ज्ञान से जब