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जैन-बौद्ध-दर्शन
प्रो. उदयचन्द्र जैन वर्शन का अर्थ
प्रश्न का समाधान हो सकता है। क्योंकि विभिन्न ऋषियों मनुष्य विचारशील प्राणी है। वह प्रत्येक कार्य के ने अपने-अपने दृष्टिकोणों से वस्तु के स्वरूप को जानकर समय अपनी विचारशक्ति का उपयोग करता है। इसी उसी का बार-बार मनन पौर चिन्तन किया और इसके विचारशक्तिको विवेक कहते हैं। मनुष्य और पशुपों में फलस्वरूप उन्हें अपनी-अपनी भावना के अनुसार वस्तु के भेद भी यही है कि मनुष्य की प्रवृत्ति दिवेकपूर्वक होती है स्वरूप का दर्शन हुग्रा । भावना के द्वारा वस्तु के स्वरूप और पशुमों की प्रवृत्ति अविवेकपूर्वक होती है। यदि कोई ___ का स्पष्ट प्रतिभास होता है यह बात अनुभव से सिद्ध है। मनुष्य अविवेकपूर्वक प्रवृत्ति करता है तो उसे नाम से ही काम, शोक, भय, उन्माद प्रादि के वशीभूत होकर मनुष्य मनुष्य कहा जा सकता है, वास्तव में नहीं। मनुष्य में जो अविद्यमान पदार्थों को विद्यमान सरीखे देखते हैं। कहा विचारशक्ति या विवेक है उसी का नाम दर्शन है। इस भी हैप्रकार प्रत्येक मनुष्य का एक दर्शन होता है, चाहे वह काम-शोक-भयोन्माद-चोर-स्वप्नाथपप्लुताः । उसे जाने या न जाने । दर्शन हमारे जीवन का एक अभिन्न अभूतानपि पश्यन्ति पुरतोऽवस्थितानिव ।। अंग है, हम उसे अपने जीवन से पृथक् नही कर सकते ।
--प्रमाणवार्तिक २२८२ वर्शन शब्द की व्युत्पत्ति
कारागार में बन्द कामी पुरुष रात्रि के गहन अन्धदश्यतेऽनेन इति दर्शनम्-अर्थात् जिसके द्वारा वस्तु कार मे प्रांखों के बन्द होने पर कान्ता की सतत भावना का स्वरूप देखा जाय वह दर्शन है। यह ससार नित्य है के द्वारा कान्ता के मुख को स्पष्ट देखता है। यथाया भनित्य ? इसकी सृष्टि करने वाला कोई है या नही?
पिहिते कारागारे तमसि च सूचीमुलापवुर्भे दे। मात्मा का स्वरूप क्या है ? इसका पुनर्जन्म होता है या
मयि च निमीलितनयने तपापि कान्ताननं व्यक्तम् ।। यह इसी शरीर के साथ समाप्त हो जाती है ? ईश्वर की सत्ता है या नहीं ? इत्यादि प्रश्नों का समुचित उत्तर देना
भारतीय दर्शन में जैन-बौद्धदर्शन का स्थानदर्शनशास्त्र का काम है। वस्तु के स्वरूप का प्रतिपादन भारतीय दर्शन को हम दो भागों में विभक्त कर करने से दर्शनशास्त्र वस्तु-परतन्त्र है। इस प्रकार यह सकते हैं-वैदिक दर्शन और अवैदिक दर्शन । वेद की कहा जा सकता है कि प्राचीन ऋषि और महर्षियो ने परम्परा में विश्वास रखने वाले न्याय. वैशेपिक, साख्य, अपनी तात्त्विक दृष्टि से जिन जिन तथ्यो का साक्षात्कार योग, मीमांसा और वेदान्त ये छह दर्शन वैदिक दर्शन हैं। किया, उनको दर्शन शब्द के द्वारा कहा गया है। यहाँ तथा वेद को प्रमाण न मानने के कारण चार्वाक, बौद्ध यह प्रश्न हो सकता है कि यदि दर्शन का प्रथं साक्षात्कार और जैन ये तीन दर्शन प्रवैदिक हैं। कुछ लोग जैन मौर है तो फिर विभिन्न दर्शनों में पारस्परिक भेद का कारण बौद्ध दर्शन को वैदिक दर्शन की शाखा के रूप में ही क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर यही हो सकता है कि अनन्त स्वीकार करते हैं, उनकी ऐसी मान्यता ठीक नही है। धर्मात्मक वस्तु को विभिन्न ऋषियों ने अपने-अपने दृष्टि क्योंकि ऐतिहासिक खोजों के प्राधार पर यह सिद्ध हो कोण से देखने का प्रयत्न किया और तदनुसार ही उसका चुका है कि श्रमण परम्परा के अनुयायी उक्त दोनों धर्मों प्रतिपादन किया। अतः यदि हम 'दर्शन' शब्द का अर्थ और दर्शनों का स्वतन्त्र अस्तित्व है। भारतीय बर्शन के भावनात्मक साक्षात्कार के रूप में ग्रहण करे तो उपर्युक्त विकास मे जनदर्शन और बौडदर्शन ने महत्त्वपूर्ण योग