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अनेकान्त
उसके समय में अनेक मन्दिर बने तथा मूर्तियों की प्रतिष्ठा पण्णति३५ के अनुसार बारा में अनेक श्रावक तथा जैनहई । महाराणा जगतसिंह और महाराणा राजसिंह ने भी मन्दिर थे। यहां का राजा शक्ति था जो मेवाड़ का शक्ति जैनधर्म को बहुत प्रेरणा दी। उन्होंने साल के कुछ दिनों कुमार (१७७ ई०) हो सकता है। रोमगढ़ में जिसका राज्य में जीवहिंसा पर रोक लगा दी।
प्राचीन नाम श्रीनगर था, जैन साधुनों के ठहरने के लिए डूंगरपुर, बांसवाडा और प्रतापगढ़ राज्यों का क्षेत्र नवीं व दसवीं सदी की जैन गुफाएं हैं । पटरु मे बारहवीं प्राचीन समय में बागडदेश के नाम से प्रसिद्ध था। दसवीं और तेरहवीं शताब्दी के दो कलापूर्ण जैनमन्दिर हैं। पटरु शताब्दी में भी इस क्षेत्र में जैनधम प्रचलित था क्योंकि के पास कृष्णविलास नामक स्थान है जहा पर पाठवीं से दसवीं शताब्दी के शिलालेख में 'जयति श्री वागड़ सघ' लेकर ग्यारहवी शताब्दी तक के बने हुए जैन मन्दिर हैं । का उल्लेख पाया है। राजामों के मन्त्रियों ने मन्दिर शेरगढ़ का प्राचीन नाम कोशवर्षन था। यहाँ पर नवबनवाये तथा मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवाई। डूगरपुर का निर्मित चैत्य में वीरसेन के समय मे जैन तीर्थकर नेमिनाथ प्राचीन नाम गिरिवर था । जपानन्द की प्रवास गोतिका- का महोत्सव मनाया गया । ११३४ ई० मे देवपालने रत्नप्रय३१ से पता चलता है कि १३७० ई० मे यहा पर पांच त्रय की स्थापना की और उसकी प्रतिष्ठा धूमधाम से जैन मन्दिर तथा ५.० जैनघर थे । १४०४ ई. में रावल की३६ । १६८९ ई. में चांदखेड़ी में किशोरसिंह के राज्य प्रतापसिंह के मन्त्री प्रसाद ने जैन मन्दिर बनवाया। काल मे कृष्णदास नाम के एक धनी बनिये ने महावीर गजपाल के राज्य में भी जैनधर्म फलता फूलता रहा। का जैन मन्दिर बनवाया और सैकड़ो मूर्तियो की प्रतिष्ठा उसके मन्त्री प्राभा ने प्रांतरी में एक शान्तिनाथ का जैन- की। मन्दिर बनाया३२ । सोमदास के मन्त्री साला ने पीतल सिरोही राज्य में भी जैनधर्म का अच्छा प्रचार हुआ। की भारी वजन की मूर्तियां डूगरपुर मे तैयार करवा कालन्द्री के वि० सं० १३३२ के शिलालेख से पता चलता करके उनकी प्रतिष्ठा प्राबू के जैनमन्दिरों में करवाई३३। है कि यहाँ के श्रमण संघ के कुछ सदस्यों ने समाधिभरण उसने गिरिवर के पार्श्वनाथ के मन्दिर का भी पुनरोद्धार के द्वारा मृत्यु प्राप्त की३८ । यहाँ के सजानो के राज्य मे करवाया। चौदहवीं और पन्द्रहवीं शताब्दी की अनेक जैन जैनधर्म बहुत फैला। सहज, दुर्जनशाल, उदयमिह प्रादि मूर्तियां प्रतापगढ़ राज्य में मिलती हैं। देवली के १७१५ राजाओं के समय मे मन्दिरों तथा मूर्तियों की प्रतिष्ठा ई. के शिलालेख३४ से ज्ञात होता है कि इस गांव के हुई। तेलियों ने भी महाराज पृथ्वीसिंह के राज्य मे सौरया और जैसलमेर के भाटी राजपूत राजामो के राज्य जीवराज नाम के महाजनों की प्रार्थना से साल में ४४ में भी जैनधर्म का अधिक प्रचार प्रा । दसवीं दिन के लिए अपने कार्य को बन्द करने का निश्चय किया। शताब्दी मे यहाँ के राजा सागर के जिनेश्वर सूरि की इसी राजा के समय में मल्लिनाथ के मन्दिर का निर्माण कृपा से श्रीधर और राजधर नामक दो पुत्र हुए जिन्होने
पार्श्वनाथ के मन्दिर को बनवाया३६ । इस मन्दिर का कोटा डिवीजन में भी जनधर्म के प्राचीन अवशेषों के पुनः निर्माण १६१८ ई० में सेठ थाहरुशाह ने किया४० । बारे में जानकारी प्राप्त होती है। पमनन्दि की जम्बूद्वीप- ३५. पुरातन जैनवाक्य सूची, पृ० ६७
३६. एपि माफिया इडिका, पृ००४ ३१. श्री महारावल जयन्ती अभिनन्दन ग्रंथ पृ० ३९७ ३७. जैनिज्म इन राजस्थान, पृ० ३६ ३२. एनुवल रिपोर्ट राजपूताना म्युजियम, अजमेर, ३६. प्रोग्रेस रिपोर्ट माकियोलोजिकल सर्वे वेस्टर्न सकिल, १९१५-१६
१९१६-१७, पृ. ६७ ३३. वही, १९२६-३०, न. ३
३६. नाहर जैन लेख संग्रह, नं० २५४३ ३४. वही, १९३४-३५, नं० १७
४०. वही, नं० २५४